डॉ. अम्बेडकर के विचार

संपादकीय { गहरी खोज } : 25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा में संविधान के अंतिम प्रारूप दुरुस्त करते हुए डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सभा को संबोधित होते हुए जो कहा उसका अंश आप सम्मुख रख रहा हूं। डॉ. अम्बेडकर ने संविधान और संविधान संशोधन को लेकर जो विचार प्रकट किए थे, उन पर राजनीतिक दलों को गंभीरता से मंथन करने की आज भी आवश्यकता है।
”अंत में श्रीमान् अध्यक्ष जी, जिस तरह से आपने सभा की कार्यवाहियों का संचालन किया है उसके लिए मुझे आपको धन्यवाद देना चाहिए। जिन सदस्यों ने सदन की कार्यवाहियों में भाग लिया है वे सभा के सदस्यों के प्रति दर्शाए गए आपके सौजन्य और सम्मान को कभी भूल नहीं पाएँगे। ऐसे अवसर आए थे जब मसौदा समिति के संशोधनों को केवल तकनीकी आधारों पर खारिज करवाने का प्रयास किया गया था। मेरे लिए वे बहुत तनावपूर्ण क्षण थे। इसलिए संविधान बनाने के कार्य में विधिवाद (लीगलिज्म) को आड़े न आने देने के लिए मैं आपका विशेष रूप से आभारी हूँ।
संविधान का जितना बचाव किया जा सकता था उतना मेरे मित्र सर अल्लादि ल्लादि कृष्णस्वामी कृष्णस्वामी अय्यर और श्री टी.टी. कृष्णमाचारी कर चुके हैं। इसलिए मैं संविधान के गुण-दोषों में नहीं जाऊँगा, क्योंकि मैं समझता हूँ कि भले ही संविधान कितना भी अच्छा हो वह बुरा ही माना जाएगा, क्योंकि जिन लोगों को उस पर अमल करना है वे बुरे निकलते हैं। दूसरी ओर, एक संविधान भले ही कितना भी बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है अगर उस पर अमल करने वाले लोग अच्छे हैं। एक संविधान की व्यवहार्यता पूरी तरह से उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल देश के अंग, जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका उपलब्ध करा सकता है। जिन कारकों पर राज्य के उन अंगों की क्रियाशीलता निर्भर है वे हैं जनता तथा उसकी आकांक्षाओं और राजनीति को पूरा करने के उपकरण के रूप में जनता द्वारा स्थापित राजनीतिक दल। कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उसके राजनीतिक दल किस तरह का आचरण करेंगे? अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्या वे संवैधानिक तरीकों की मर्यादा बनाए रखेंगे या उन्हें प्राप्त करने के लिए वे क्रांतिकारी तरीकों को प्राथमिकता देंगे? अगर वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान कितना ही अच्छा क्यों न हो, यह कहने के लिए किसी भविष्यदृष्टा की जरूरत नहीं है कि वह असफल रहेगा। इसलिए जनता और उनके दलों की संभावित भूमिका का जिक्र किए बिना संविधान के अच्छे या बुरे होने का फैसला करना व्यर्थ है।
संविधान की निंदा अधिकांशतः दो पक्षों की ओर से आती है: कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी। वे संविधान की निंदा क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वह सचमुच एक बुरा संविधान है? मैं ‘नहीं’ कहने का जोखिम उठाता हूँ। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित एक संविधान चाहती है। वे इस संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय प्रजातंत्र पर आधारित है। समाजवादी दो चीजें चाहते हैं। पहली तो यह कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो संविधान उन्हें सारी निजी संपत्तियों के राष्ट्रीयकरण या समाजीकरण की आजादी दे, वह भी मुआवजे के भुगतान के बिना। दूसरी चीज जो समाजवादी चाहते हैं वह यह है कि संविधान में दिए गए मूलभूत अधिकार असीमित होने चाहिएं ताकि अगर उनकी पार्टी सत्ता में न आ सके तो उनके पास न केवल शासन की निंदा करने बल्कि उसे उखाड़ फेंकने की बेरोक आजादी हो।
ये मुख्य आधार हैं जिन पर संविधान की निंदा की जा रही है। मैं यह नहीं कहता कि संसदीय प्रजातंत्र का सिद्धांत राजनीतिक प्रजातंत्र का एकमात्र आदर्श स्वरूप है। मैं यह नहीं कहता कि बिना मुआवजे संपत्ति अधिग्रहीत न करने का सिद्धांत इतना पवित्र है कि किसी सूरत में उसका उल्लंघन नहीं हो सकता। मैं यह नहीं कहता कि मूलभूत अधिकार कभी भी अमर्यादित नहीं हो सकते और उन पर लगाई गई सीमाएँ कभी हटाई नहीं जा सकतीं। मैं जो कहता हूँ वह यह है कि संविधान में निहित सिद्धांत वर्तमान पीढ़ी के विचार हैं और अगर आप यह समझते हैं कि यह कुछ ज्यादा ही बड़ी बात है तो मैं कहता हूँ कि वे संविधान सभा के सदस्यों के विचार हैं। तो उन्हें संविधान में स्थान देने के लिए मसौदा समिति को दोषी क्यों ठहराया जा रहा है? मैं तो कहता हूँ कि संविधान सभा के सदस्यों को भी दोषी क्यों ठहराया जाए? महान् अमेरिकी राजनीतिज्ञ जेफरसन, जिन्होंने अमेरिकी संविधान की रचना में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन्होंने कुछ भारी-भरकम विचार व्यक्त किए हैं, अन्य संविधान निर्माता जिनकी अनदेखी नहीं कर सकते हैं। एक स्थान पर उन्होंने कहा है-
‘हम प्रत्येक पीढ़ी को एक भिन्न राष्ट्र मान सकते हैं जिसके पास बहुमत की इच्छानुसार स्वयं को बाँधने का अधिकार है, परंतु उसे बाद की पीढ़ियों को बाँधने का वैसे ही कोई अधिकार नहीं है जैसे दूसरे देश के वासियों को बाँधने का अधिकार नहीं होता।’
एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा है-
卐यह विचार कि राष्ट्र के उपयोग के लिए स्थापित संस्थाओं को उन्हीं के उद्देश्य प्राप्त करने के लिए भी छुआ या बदला नहीं जा सकता-उन व्यक्तियों, जिन्हें जनहित में उनके प्रबंधन के लिए नियुक्त किया गया है, के अकारण ही मान लिये गए अधिकारों के चलते एक तानाशाह द्वारा अपनी शक्तियों के दुरुपयोग के खिलाफ शायद एक हितकारी प्रावधान हो सकता है, परंतु स्वयं राष्ट्र के संदर्भ में वह बहुत ही बेतुका है। फिर भी हमारे विधिवेत्ता और पुजारी आम तौर पर यह सिद्धांत लोगों के मन में बैठाते हैं और यह मान लेते हैं कि पिछली पीढ़ियों ने धरती को हमारे मुकाबले अधिक सुगमता से थामा हुआ था; उनके पास हम पर ऐसे कानून थोपने का अधिकार था जिन्हें हम बदल नहीं सकते और यह कि इसी तरह हम भी कानून बनाकर उनका भार भावी पीढ़ियों पर डाल सकते हैं जिन्हें बदलने का उन्हें कोई अधिकार न होगा; संक्षेप में यह कि धरती जीवित लोगों के लिए नहीं, मुरदों के लिए है।’
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि जेफरसन ने जो कुछ कहा वह न केवल सत्य है, बल्कि परम सत्य है। इस बारे में कोई संदेह ही नहीं है। अगर संविधान सभा जेफरसन द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत से हटी होती तो निश्चित रूप से उस पर दोषारोपण, बल्कि निंदा की जा सकती थी, परंतु मैं पूछता हूँ, क्या उसने ऐसा किया है? उसने इससे बिलकुल उलट किया है।”
समय के साथ और परिस्थितियों को सम्मुख रख कर संविधान में संशोधन का अधिकार संसद को है। इस पर हाय तौबा या हिंसा करना उचित नहीं है। संसद में संविधान संशोधन करने का सिलसिला तो नेहरू सरकार से चला आ रहा है। आज समाज व देश हित को सम्मुख रख मोदी सरकार संसद द्वारा पारित संशोधन लागू कर रही है तो इसका केवल-व-केवल विरोध के लिए विरोध करना गलत है। कानून जीवित लोगों द्वारा और जीवित लोगों के लिए ही बनाए जाते हैं ताकि समाज व देश जीवंत रहे।