न्यायालय ने न्यायाधीशों के खिलाफ अपमानजनक आरोप लगाने की प्रवृत्ति पर चिंता जताई

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नयी दिल्ली{ गहरी खोज } : उच्चतम न्यायालय ने वादियों और वकीलों में अदालती फैसले उनके पक्ष में न आने पर न्यायाधीशों के खिलाफ अपमानजनक तथा निंदनीय आरोप लगाने की “परेशान करने वाली प्रवृत्ति बढ़ने” पर सोमवार को गहरी चिंता जताई। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने वादी एन पेड्डी राजू और उसके दो वकीलों के खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही बंद करते हुए यह टिप्पणी की। उसने राजू और उसके वकीलों को चेतावनी दी कि इस तरह का आचरण न्यायिक प्रणाली की अखंडता को कमजोर करता है और इसकी “कड़ी निंदा” की जानी चाहिए। पीठ ने मामला इसलिए बंद कर दिया, क्योंकि तेलंगाना उच्च न्यायालय की न्यायाधीश ने वादी और उसके दो वकीलों की ओर से मांगी गई माफी स्वीकार कर ली थी।
प्रधान न्यायाधीश ने फैसले में कहा, “हाल के दिनों में, हमने देखा है कि जब कोई न्यायाधीश अनुकूल आदेश पारित नहीं करता है, तो उसके खिलाफ अपमानजनक और निंदनीय आरोप लगाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इस तरह की प्रथा की कड़ी निंदा की जानी चाहिए।” पीठ ने कहा कि न्यायालय के अधिकारी होने के नाते वकीलों का न्यायपालिका के प्रति कर्तव्य है और उन्हें न्यायाधीशों के खिलाफ अपमानजनक एवं निंदनीय आरोपों वाली याचिकाओं पर हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए।
उसने कहा, “अदालत के अधिकारी होने के नाते वकीलों को इस अदालत या किसी भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के खिलाफ आरोप लगाने वाली याचिकाओं पर हस्ताक्षर करने से पहले सावधानी बरतनी चाहिए। इसके साथ ही, माफी स्वीकार की जाती है और अवमानना ​​की कार्यवाही बंद की जाती है।” पीठ ने कहा, “कानून की गरिमा दंड देने में नहीं, बल्कि माफी मांगे जाने पर माफ करने में है। चूंकि, उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश, जिनके खिलाफ आरोप लगाए गए थे, उन्होंने माफी स्वीकार कर ली है, इसलिए हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं।”
एन पेड्डी राजू और उसके वकीलों ने तेलंगाना उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति मौसमी भट्टाचार्य के खिलाफ बेबुनियाद और अपमानजनक आरोप लगाए थे।
दरअसल, मामला राजू की ओर से दाखिल स्थानांतरण याचिका से संबंधित है, जिसमें उच्च न्यायालय की न्यायाधीश के खिलाफ पक्षपात का आरोप लगाया गया था, जिन्होंने तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए रेवंत रेड्डी के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत दायर एक आपराधिक मामले को खारिज कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि इस तरह की टिप्पणियों से न केवल न्यायपालिका में जनता का विश्वास कम होता है, बल्कि अदालतों की गरिमा भी धूमिल होती है। उसने कहा, “इस प्रथा की कड़ी निंदा की जानी चाहिए। अदालत के अधिकारी होने के नाते, वकीलों का यह कर्तव्य है कि वे न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखें।”

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