राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय से किये प्रश्न

संपादकीय { गहरी खोज }: पिछले माह की 8 तारीख को तमिलनाडू के राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए राज्य के विधेयकों पर निर्णय लेने की समय सीमा निर्धारित करने के दो सदस्यों की पीठ द्वारा दिए निर्णय को लेकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने देश के सर्वोच्च न्यायालय से 14 प्रश्न किये हैं जो इस प्रकार हैं:- प्रस्तुत विधेयक मामले में राज्यपाल के संवैधानिक विकल्प क्या हैं? क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह को लेकर बाध्य हैं? राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विवेक का उपयोग न्यायोचित है? क्या राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण पाबंदी है? • राज्यपाल के लिए समयसीमा निर्धारित की जा सकती है? क्या राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है? • क्या राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है। क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने की आवश्यकता है? क्या फैसले कानून बनने से पहले के चरण में न्यायोचित हैं? विधेयक के कानून बनने से पहले क्या न्यायिक निर्णय लिए जा सकते हैं? क्या आदेशों को प्रतिस्थापित किया जा सकता है? क्या राज्य विधानमंडल द्वारा तैयार कानून राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू हो सकते हैं? क्या संविधान की व्याख्या के लिए न्यूनतम पांच न्यायाधीशों की पीठ नहीं होनी चाहिए? क्या सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां निर्देश जारी करने तक विस्तारित है? क्या सुप्रीम कोर्ट किसी अन्य क्षेत्राधिकार पर रोक लगा सकता है?
गौरतलब है कि तमिलनाडू के राज्यपाल बनाम राज्य सरकार के बीच विधेयकों की मंजूरी के लिए समय सीमा निर्धारित करने के मामले में फैसला करते हुए देश के उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा से पारित विधेयकों पर तय समय में फैसला लेना होगा। उसने यह भी कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा और यदि तय समय सीमा में फैसला नहीं लिया जाता तो राष्ट्रपति को राज्य को इसका कारण बताना होगा। वह यहीं नहीं रुका था, उसने ऐसे किसी विषय पर राष्ट्रपति को खुद से सलाह लेने को भी कह दिया था। ऐसा आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर दिया था। इससे भी विचित्र बात यह हुई थी कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के पास विचारार्थ तमिलनाडु के विधेयकों को खुद मंजूरी देकर उनके कानून बनने का रास्ता साफ कर दिया था। ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। उसने एक तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति, दोनों की शक्तियों को अपने हाथ ले लिया था। इसी कारण इस फैसले पर सवाल उठे थे और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने तो सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लेते हुए तीखी टिप्पणी की थी। यहां पर प्रश्न सीधा है कि क्या संविधान में जो कुछ नहीं कहा गया वह उच्चतम न्यायालय अपने आदेश द्वारा कह सकता है? इसका उत्तर है नहीं, क्योंकि संविधान में जो नियम जोड़ना है या निकालना है वह देश की संसद का अधिकार है, संसद ही सर्वोच्च है।
आज उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की कमी है। इसके बावजूद उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को यह आदेश तो नहीं दे सकता कि तय समय सीमा में न्यायाधीशों की नियुक्त की जाए। उच्चतम न्यायालय भूल गया कि देश की जिला से लेकर उच्च न्यायालयों और तो और उच्चतम न्यायालय सहित हजारों की संख्या में मुकदमे पेंडिंग पड़े हैं। उनको एक समय सीमा में समाप्त करने के लिए क्या देश का सर्वोच्च न्यायालय आदेश दे सकता है, शायद नहीं।
उच्चतम न्यायालय का राज्यपाल बनाम तमिलनाडु सरकार के मामले में दिया गया आदेश उसकी सक्रियता को दिखाने के साथ-साथ न्यायपालिका और कार्यपालिका के संबंधों को लेकर भी विवाद खड़ा करता है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जो प्रश्न पूछे है, वह संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए हैं। अब पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ही दो जजों द्वारा दिए निर्णय और राष्ट्रपति द्वारा पूछे प्रश्नों का उत्तर देगी। संविधान की व्याख्या तो उच्चतम न्यायालय कर सकता है, पर व्याख्या करते हुए संविधान में नये नियम बनाकर कोई संशोधननुमा निर्णय नहीं दे सकता। राष्ट्रपति द्वारा पूछे प्रश्न भी इसी स्थिति को स्पष्ट करने हेतु ही किये गए हैं।