रमा एकादशी पर जरूर पढ़ें ये पावन कथा, जीवन में आएगी सुख-समृद्धि, पापों से भी मिलेगी मुक्ति

0
WhatsApp Image 2025-10-17 at 1.30.18 PM (1)

धर्म { गहरी खोज } : रमा एकादशी चातुर्मास की अंतिम एकादशी होती है। कहते हैं इस एकादशी का व्रत रखने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है। इस दिन माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। इस साल ये एकादशी 17 अक्तूबर 2025 को मनाई जा रही है। पद्म पुराण अनुसार रमा एकादशी का व्रत कामधेनु और चिंतामणि के समान फल देता है। इतना ही नहीं इस व्रत को करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश हो जाता है और उसे पुण्य फल की प्राप्ति होती है। चलिए जानते हैं रमा एकादशी की कथा क्या है।

रमा एकादशी व्रत कथा
रमा एकादशी की कथा अनुसार प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम के एक राजा थे। जिनकी इंद्र देव, यम, कुबेर, वरुण और विभीषण के साथ मित्रता थी। राजा बड़े धर्मात्मा और विष्णुभक्त थे। उनके राज में जनता बेहद सुख से रहती थी। उस राजा की चंद्रभागा नाम की एक कन्या थी। कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ और एक समय शोभन अपने ससुराल आया। उन्हीं दिनों रमा एकादशी भी आने वाली थी। जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा ये सोचकर चिंतित हो गईं कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और तो ये एकादशी का व्रत कैसे रखेंगे। दशमी के दिन ही उस कन्या के पिता यानी राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी के दिन कोई भोजन नहीं करेगा। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई और अपनी पत्नी से कहा अब क्या करना चाहिए, मैं भूख सहन नहीं कर सकूंगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण भी बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएंगे।

चंद्रभागा कहने लगी कि मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको ये व्रत करना ही पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूंगा, जो मेरे भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा। शोभन ने एकादशी का व्रत रख लिया लेकिन वह भूख व प्यास से अत्यंत पीड़ित होने लगा। प्रात:काल होते ही शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी व्रत के प्रभाव से ही शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त और शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चंवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो। एक दिन मुचुकुंद नगर का एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान लिया कि यह तो राजा का जमाई है। शोभन ने भी उसे पहचान लिया और उसे प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है कि आप यहां कैसे। ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको किस तरह से प्राप्त हुआ।

तब शोभन ने कहा कि ये सब रमा एकादशी व्रत की महिमा है लेकिन यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण ने कहा कि यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है? आप बताइए, फिर मैं अवश्य वह उपाय करूंगा। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धा के साथ नहीं किया था। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो जाएगा। ये सुनकर ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा को सब बता दिया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्न हुईं और कहने लगी कि ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या फिर सपने की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण ने कहा कि मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है।

चंद्रभागा कहने लगी मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन करने की लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूंगी। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी व्रत के पुण्यफल से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।

इसके बाद वे अपने पति से मिली। अपनी प्रिय पत्नी को आते देख शोभन अति प्रसन्न हुआ और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। जब मैं आठ वर्ष की थी तब से ही एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूं। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा। इस प्रकार चंद्रभागा अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

तभी से कहा जाता है कि जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *