बिहार विधानसभा चुनाव : भाजपा की राह पर बिहार में राजग के सहयोगी, 183 उम्मीदवार में एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं

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पटना{ गहरी खोज }: बिहार विधानसभा चुनाव के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के घटक दलों ने अब तक 182 उम्मीदवारों की सूची जारी की है। इनमें एक भी मुस्लिम नहीं है। अब तक घोषित उम्मीदवारों से साफ है कि राजग के घटक दल भी अब भाजपा की राह पर चल पड़े हैं।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अपने कोटे के सभी 101 उम्मीदवारों के नामों की सूची जारी कर दी। भाजपा ने पहली लिस्ट में 71 उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की थी। इसके बाद बुधवार को भाजपा ने 12 उम्मीदवारों की दूसरी लिस्ट जारी की और फिर बुधवार देररात शेष बचे 18 उम्मीदवारों के नामों की भी घोषणा कर दी। इसी तरह जदयू ने भी 57 उम्मीदवारों की सूची जारी की है, उनमें एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं है। लोजपा-आर की 15, हम की 06 और उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई वाली आरएलएम 04 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की है। इनमें से एक एक भी सीट पर अल्पसंख्यक उम्मीदवार को तव्वजों नहीं दी गई है।
भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की सूची में राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और वैश्य वर्ग पर अपना राजनीतिक दांव लगाया है। अधिकांश स्थानों पर उम्मीदवार इन्हीं जातियों से चुने गए हैं, जबकि यादव समुदाय के कई नेताओं के टिकट इस बार कट गए हैं। यहां तक कि बिहार विधानसभा अध्यक्ष नंद किशोर यादव तक को टिकट नहीं मिला। हालांकि, उसकी क्षतिपूर्ति दानापुर से पूर्व केंद्रीय मंत्री राम कृपाल यादव को टिकट देकर की गई है।
भाजपा की सूची से यह साफ दिखाई देता है कि जहां-जहां सवर्ण जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली हैं, उन इलाकों में पार्टी ने खुल कर उन्हीं को टिकट दिया है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि भाजपा को विश्वास है कि नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सवर्ण उम्मीदवारों को अति पिछड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त हो सकता है। यह वर्ग राज्य में लगभग 36 प्रतिशत मतों का हिस्सा रखता है और इन्हें अक्सर “चुप्पा वोटर” भी कहा जाता है। हालांकि मगध क्षेत्र में चंद्रवंशी समाज राजनीतिक रूप से मुखर है और उन्हें अपनी सक्रियता का लाभ भी मिलता आया है, लेकिन वह प्रभाव उस स्तर का नहीं है जो पिछड़े वर्ग में अग्रणी जातियों को प्राप्त होता है।
जद (यू) की सूची अपेक्षाकृत मिश्रित है, परंतु दोनों दलों ने यादव उम्मीदवारों को सीमित अवसर दिए हैं। अब तक जद (यू) की सूची में एक भी मुस्लिम नेता को टिकट नहीं मिला है। यहां तक कि मंडल आयोग के जनक स्वर्गीय बीपी मंडल के पौत्र का भी टिकट काट दिया गया है। अति पिछड़े वर्ग के वोटों के सहारे मजबूत उम्मीदवार उतारने की रणनीति मूलतः नीतीश कुमार की रही है, जिसे भाजपा ने सन 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली बार अपनाया और फिर योगी आदित्यनाथ ने यही फ़ॉर्मूला 2022 में भारी बहुमत के साथ दोहराया। जब दोनों दलों की संपूर्ण सूची जारी होगी, तब यह समझ पाना अधिक स्पष्ट हो सकेगा कि राजग इस बार चुनावी धारा को किस दिशा में मोड़ने की रणनीति बना रही है।
उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों राज्यों में चुनावी जीत का मुख्य आधार अति पिछड़ा वर्ग रहा है। सन 2005 के चुनाव से ही यह वर्ग नीतीश कुमार के साथ मजबूती से जुड़ा रहा है। इस वर्ग में सैकड़ों जातियां आती हैं, परंतु कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद इनका कोई राज्यस्तरीय नेता उभर नहीं पाया। नब्बे के दशक में लालू प्रसाद यादव ने भी इस वर्ग से किसी बड़े नेता को विकसित नहीं होने दिया, और नीतीश कुमार ने भी उसी राह पर चलकर किसी को आगे नहीं बढ़ने दिया।

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