पाकिस्तान-सऊदी रक्षा समझौता

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paksitan

संपादकीय { गहरी खोज }: गत 17 सितंबर को पाकिस्तान और सऊदी अरब में एक रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौता हुआ है। इस समझौते का एक महत्त्वपूर्ण पहलू इसकी वह प्रतिबद्धता है कि किसी भी देश पर हुआ हमला दोनों देशों पर आक्रमण माना जाएगा। माना जा रहा है कि खाड़ी देशों के लिए सुरक्षा से जुड़े जोखिम और इजरायल के खतरे ने सऊदी अरब को इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित किया तो पाकिस्तान की ऐसी कोई भी सोच हमेशा भारत केंद्रित होती है। आपरेशन सिंदूर के बाद वह अपने समीकरण नए सिरे से तय करने में जुटा है और यह समझौता भी उसी रणनीति का हिस्सा लगता है। सऊदी-पाकिस्तान के संबंधों की जड़ें बहुत गहरी और पुरानी हैं। यहां तक कि पाकिस्तान निर्माण के पहले से ही सऊदी अरब ने एक तरह से उसका समर्थन शुरू कर दिया था। प्रिंस फैसल ने 1946 में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर मुस्लिम लीग की पाकिस्तान परियोजना की पैरवी की थी। सऊदी अरब पाकिस्तान को संप्रभु देश की मान्यता देने वाले शुरुआती देशों में से एक था। सऊदी अरब के प्रिंस सुलतान ने तो 1960 के दौरान यह तक कहा कि पाकिस्तान हमारा सबसे परम मित्र है और हमें जब भी सैन्य मदद की आवश्यकता होती है तो उस पर ही सबसे अधिक भरोसा रहता है। दोनों देशों के सामरिक रिश्तों में इजरायल भी एक पहलू रहा है। उनके बीच पहले औपचारिक रक्षा समझौते की बात करें तो यह 1967 में हुआ। इसमें पाकिस्तान के सैन्य सलाहकारों ने सऊदी सशस्त्र बलों के विस्तार और आधुनिकीकरण में मदद की। भारत के लिए महत्त्वपूर्ण कश्मीर मुद्दे पर सऊदी अरब पाकिस्तान के पीछे खड़ा रहा। 1965 के युद्ध के दौरान सऊदी ने पाकिस्तान को न केवल विभिन्न प्रकार की सामग्रियां उपलब्ध कराईं, बल्कि कूटनीतिक आड़ और हरसंभव सहयोग दिया। 1971 के युद्ध और बांग्लादेश संकट के दौरान भी उसका यही रवैया दिखा।
उस दौरान सऊदी राजदूत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत की कार्रवाइयों को निशाना बनाते हुए कहा था कि पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में कोई भी बाहरी हस्तक्षेप यूएन चार्टर का उल्लंघन होगा। बांग्लादेश निर्माण के बाद भी सऊदी ने उसे मान्यता देने में हिचक ही दिखाई और पाकिस्तान के रुख की प्रतीक्षा करता रहा। कश्मीर में पाकिस्तान की नापाक हरकतों के बावजूद सऊदी मौन रहा और उलटे भारत पर शांतिपूर्ण समाधान के लिए दबाव बनाता रहा। हालांकि अनुच्छेद 370 की समाप्ति के समय जरूर सऊदी अरब ने कुछ तटस्थ रुख अपनाया। इसमें भारत की बढ़ते आर्थिक कद की भी भूमिका रही, जिसका लाभ सऊदी भी उठा रहा है। बेहद मुश्किल आर्थिक हालात से जूझ रहे पाकिस्तान को सऊदी से मिलने वाली वित्तीय सहायता बड़ी राहत देगी। मुस्लिम जगत से जुड़े भू-राजनीतिक ढांचे में भी वह अपना कद बढ़ाने के प्रयास करेगा। सऊदी अरब के लिहाज से यह एकदम स्पष्ट है कि उसकी मंशा ईरान और इजरायल के खिलाफ अपनी ढाल और मजबूत करना है। वहीं पाकिस्तान भारत की बढ़ती शक्ति और प्रभाव की काट चाहता है। इससे ऐसी आशंका बढ़ जाती है कि भविष्य में पाकिस्तान के साथ किसी संघर्ष में भारत को खाड़ी देशों को लेकर और सतर्क रहना होगा, क्योंकि ऐसे टकराव में उनकी भूमिका कुछ बढ़ी हुई दिख सकती है। इस समझौते पर अपनी सधी हुई प्रतिक्रिया में भारत ने यही कहा है कि उम्मीद है कि सऊदी अरब भारत की संवेदनाओं को समझेगा। भारत ने यह भी दोहराया कि राष्ट्रीय हित और सुरक्षा उसकी प्राथमिकता है, जिसके साथ कोई समझौता नहीं।

अस्तित्व में आने से पहले से लेकर आज तक पाकिस्तान भारत का विरोध करता चला आ रहा है। सऊदी अरब ने पाकिस्तान की सहायता उस समय भी की जब पाकिस्तान अभी अस्तित्व में भी नहीं था। अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में आये परिवर्तन के कारण आज सऊदी अरब के भारत के साथ मजबूत रिश्ते हैं। बात अगर मुस्लिम भाईचारे की करें तो सऊदी अरब भारत से अधिक पाकिस्तान को ही प्राथमिकता देगा, जैसे अतीत में उसने दी। बढ़ रही अराजकता और आर्थिक स्थिति से कमज़ोर होते पाकिस्तान ने रूस, चीन, अमेरिका, बांग्लादेश इन सभी से समझौते हाल ही में किए गए हैं। यह भारतीयों पर मानसिक दबाव को बढाने की नीति है। भारत को पाकिस्तान द्वारा अपनाई इस प्रकार की रणनीति के प्रति सतर्क रहते हुए अपनी रणनीति बनानी होगी। पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के बाद अपनी अंतरराष्ट्रीय रणनीति में जो बदलाव किए हैं उससे स्पष्ट है कि वह भारत पर दबाव बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने हित साधने के साथ-साथ पाकिस्तान वासियों का ध्यान आंतरिक अराजकता व देश के आर्थिक मुद्दों से हटाने की कोशिश भी कर रहा है। पाकिस्तान-सऊदी समझौते का जवाब सैन्य व आर्थिक तथा राजनीतिक दृष्टि से एक मजबूत भारत ही है।

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