भारतीय कपड़ा उद्योग पर कितनी है संकट की घड़ी ? अमेरिकी टैरिफ का विकल्‍प हैं 40 नए बाजार : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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नई दिल्ली{ गहरी खोज }: अमेरिका ने हाल ही में भारतीय कपड़ा और परिधान उत्पादों पर 50 प्रतिशत तक का भारी-भरकम टैरिफ लगाने का ऐलान किया है। यह फैसला केवल एक व्यापारिक कदम नहीं है, बल्कि वैश्विक व्यापार समीकरणों में बदलते संतुलन का भी प्रतीक है। इस निर्णय ने भारतीय कपड़ा उद्योग को चिंता में डाल दिया है, क्योंकि अमेरिका भारत के लिए वर्षों से एक प्रमुख निर्यात बाजार रहा है। लेकिन हर संकट अपने भीतर अवसर भी छिपाए होता है। सवाल यह है कि क्या भारत इस चुनौती को अवसर में बदल पाएगा? क्या हमारे कपड़ा निर्यातक अमेरिकी बाजार पर निर्भरता घटाकर नए बाजारों में टिकाऊ पैठ बना सकेंगे? और क्या केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इस विशाल उद्योग को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में और मजबूत बना पाएंगी?
भारतीय कपड़ा उद्योग का अतीत इस संबंध में बताता है कि यह क्षेत्र कठिनाइयों से घबराकर पीछे हटने वाला नहीं है। कोविड-19 महामारी के दौरान जब वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला चरमरा गई थी और लाखों श्रमिकों की रोजी-रोटी पर संकट मंडरा रहा था, तब भी यही उद्योग धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ और आज पहले से अधिक मजबूत दिखाई देता है। यही वजह है कि केंद्रीय कपड़ा मंत्री गिरिराज सिंह का दावा है कि अमेरिकी टैरिफ से झटका जरूर लगेगा, लेकिन यह पूरे उद्योग को डिगा नहीं पाएगा। भारत का कुल कपड़ा और परिधान निर्यात लगभग 40 से 45 बिलियन डॉलर का है। इसमें अमेरिका की हिस्सेदारी केवल 8 से 10 प्रतिशत है। इस हिस्से में भी 50 से 60 प्रतिशत निर्यात सिर्फ 5 से 7 बड़े व्यापारी करते हैं। यानी अमेरिका पर निर्भरता इतनी व्यापक नहीं है जितनी दिखाई देती है।
दरअसल, इसका अर्थ यह हुआ कि बड़े निर्यातक तो प्रभावित होंगे, लेकिन छोटे और मध्यम स्तर के व्यापारी तुलनात्मक रूप से कम संकट में रहेंगे। फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि अमेरिकी टैरिफ ने प्रतिस्पर्धा की चुनौती को और बढ़ा दिया है। अमेरिकी बाजार में बांग्लादेश, वियतनाम, मैक्सिको और तुर्की जैसे देशों की पकड़ पहले से ही मजबूत है। जब भारतीय उत्पादों पर 50 प्रतिशत तक अतिरिक्त शुल्क लगेगा, तो अमेरिकी खरीदार विकल्प तलाशने में देर नहीं करेंगे। ऐसे में भारत को अपनी रणनीति बदलनी ही होगी।
यही वजह है कि सरकार ने इस चुनौती का जवाब बाजार विविधीकरण के रूप में दिया है। कपड़ा मंत्रालय ने 40 नए संभावित बाजारों की पहचान की है, जिनमें यूनाइटेड किंगडम, जापान, दक्षिण कोरिया, संयुक्त अरब अमीरात, रूस, जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, नीदरलैंड्स, पोलैंड, कनाडा, मैक्सिको, बेल्जियम, तुर्की और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश शामिल हैं। यह सूची बताती है कि भारत केवल पारंपरिक साझेदारों तक सीमित नहीं रहना चाहता, बल्कि यूरोप, खाड़ी, एशिया-प्रशांत और लैटिन अमेरिका जैसे विविध क्षेत्रों में भी पैठ बनाना चाहता है।
इनमें से यूरोप सबसे बड़ा अवसर प्रस्तुत करता है। यूरोपीय संघ का कुल कपड़ा आयात अमेरिकी बाजार से कहीं अधिक है, करीब 268 बिलियन डॉलर सालाना। यदि भारत इस बाजार में अपनी हिस्सेदारी को दोगुना भी कर ले, तो अमेरिकी टैरिफ से हुए नुकसान की भरपाई आसानी से हो सकती है। यही कारण है कि भारत और यूरोपीय संघ के बीच चल रही मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की बातचीत पर सबकी निगाहें टिकी हैं। यदि यह समझौता सफल होता है, तो भारतीय उत्पादों को यूरोपीय बाजार में शुल्क राहत मिलेगी और प्रतिस्पर्धा में बढ़त हासिल होगी।
एफटीए का महत्व यहीं तक सीमित नहीं है। भारत ने पिछले कुछ वर्षों में यूएई और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ व्यापार समझौते किए हैं। इन समझौतों ने भारतीय कपड़ा उद्योग को तत्काल लाभ भी पहुँचाया है। उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया में भारतीय वस्त्र अब अपेक्षाकृत कम कीमत पर उपलब्ध हो पा रहे हैं। यदि यूरोप के साथ भी समझौता होता है, तो भारतीय कपड़ा उद्योग के लिए यह निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है। अभी जुलाई में ही भारत-ब्रिटेन द्वारा एफटीए पर हस्ताक्षर किए गए हैं, स्‍वभाविक है कि इसका लाभ वर्तमान दौर में भारत को मिलेगा ही।

यहां उल्‍लेखि‍त है कि सरकार ने केवल नए बाजार तलाशने तक ही अपनी रणनीति सीमित नहीं रखी है। इसके लिए चार समितियाँ गठित की गई हैं, जिनका उद्देश्य है; बाजार विविधीकरण, लागत प्रतिस्पर्धा, नियमों में सरलता और संरचनात्मक सुधार। इन समितियों में उद्योग प्रतिनिधि, नीति-निर्माता और विशेषज्ञ शामिल हैं। यह पहल बताती है कि सरकार अल्पकालिक संकट के साथ-साथ दीर्घकालिक मजबूती पर भी ध्यान दे रही है।
यहाँ यह भी याद रखना होगा कि भारत का कपड़ा उद्योग अपने विविध स्वरूप के कारण विशिष्ट है। कपास, जूट, रेशम, ऊन और सिंथेटिक फाइबर से लेकर हैंडलूम और पावरलूम तक हर स्तर पर यह उद्योग जीवित है। यही कारण है कि यह क्षेत्र कृषि के बाद सबसे अधिक रोजगार देने वाला उद्योग है। सरकार की योजनाएँ जैसे पीएम मित्र मेगा टेक्सटाइल पार्क इस विविधता को और अधिक संगठित तथा प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में उठाया गया कदम हैं। इन पार्कों में धागे से लेकर तैयार परिधान तक एक ही परिसर में उत्पादन की सुविधा देते हैं, जिससे लागत और समय दोनों की बचत होती है। फिर भी आज हमारे सामने इस क्षेत्र की अन्‍य कई चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं।
इस दिशा में कहना होगा कि सबसे बड़ी चुनौती है लागत प्रतिस्पर्धा। बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देश उत्पादन लागत में भारत से आगे हैं। दूसरी चुनौती है गुणवत्ता और पर्यावरण मानकों का पालन। यूरोप और जापान जैसे बाजारों में सतत उत्पादन और गुणवत्ता प्रमाणन की माँग बढ़ रही है। तीसरी चुनौती है समय पर डिलीवरी, क्योंकि वैश्विक खरीदार अब “जस्ट इन टाइम” आपूर्ति चाहते हैं। भारत को इन मोर्चों पर सुधार करने की आज भी बहुत अधिक आवश्‍यकता बनी हुई है। ग्राहक अपनी सुविधा तुरंत चाहता है, यदि आप थोड़ी भी देर करते हैं तो वह किसी दूसरे या तीसरे विकल्‍प पर जाने में देरी नहीं करता। ऐसे में समझदार व्‍यापारी वही कहलाता है जो एक बार उसके पास आए ग्राहक को हर हाल में भरोसे के साथ रोके रखने में सफल है।

देखा जाए तो यह संकट भारत के लिए एक अवसर भी है। लंबे समय से यह कहा जाता रहा है कि भारतीय कपड़ा निर्यात कुछ चुनिंदा बाजारों पर अत्यधिक निर्भर है। अमेरिकी टैरिफ ने इस तथ्य को और स्पष्ट कर दिया है। यदि भारत वास्तव में 40 नए बाजारों में टिकाऊ उपस्थिति दर्ज कर लेता है, तो उसका निर्यात न केवल बढ़ेगा, बल्कि अधिक स्थिर और विविध भी होगा। इससे भविष्य में किसी एक देश की नीति से पूरे उद्योग को झटका लगने का खतरा कम हो जाएगा।
भारत की ताकत केवल उत्पादन क्षमता तक सीमित नहीं है। यहाँ की सांस्कृतिक विविधता, एथनिक डिजाइन और पारंपरिक शिल्पकला भी वैश्विक बाजार में अनूठा स्थान रखती है। यदि इन उत्पादों को सही ब्रांडिंग और मार्केटिंग दी जाए, तो यूरोप और खाड़ी देशों में इनकी मांग तेजी से बढ़ सकती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अमेरिकी टैरिफ ने भारत के कपड़ा उद्योग को हिलाया जरूर है, लेकिन यह संकट स्थायी नहीं है। सरकार ने 40 नए बाजारों की पहचान, एफटीए की दिशा में सक्रिय कूटनीति और उद्योग संरचनात्मक सुधारों के जरिए दीर्घकालिक रणनीति तैयार कर ली है। उद्योग जगत को भी अपनी दक्षता, गुणवत्ता और आपूर्ति क्षमता में सुधार करना होगा। यदि यह सब समय रहते हो जाता है, तो यह संकट वास्तव में अवसर में बदल जाएगा।

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