श्रावणी उपाकर्म व गंगा स्नान के बाद विप्र समाज ने सूर्यदेव से जाने अनजाने हुए पाप के लिए क्षमा मांगी

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ऋषियों की परम्परा को निभा आत्मशुद्धि की और यज्ञोपवित को अभिमंत्रित किया
वाराणसी{ गहरी खोज }: श्रावण मास के पूर्णिमा तिथि पर शनिवार को विप्र समाज (ब्राम्हण समाज)ने सदानीरा गंगा नदी के किनारे परम्परानुसार पूरे विधि विधान से श्रावणी उपाकर्म कर ऋषियों की परम्परा को निभाया। सावनी पूर्णिमा पर समाज ने आत्मशुद्धि के लिए ज्ञात-अज्ञात पापों के शमन के लिए मां गायत्री और भगवान भाष्कर की उपासना भी की।
इसके पहले विप्र समाज, शास्त्रार्थ महाविद्यालय दशाश्वमेध के संयुक्त तत्वावधान में शुक्ल यजुर्वेदीय माध्यांदिनी शाखा के ब्राह्मण अहिल्याबाई घाट पर जुटे। घाट पर आचार्यों की देख-रेख में सर्वप्रथम गाय के गौमय, गौघृत, गौदुग्ध, गौदधि तथा गौमूत्र मिश्रित पंचगव्य से स्नान तथा उसका पान किया गया। तदुपरांत भस्म लेपन किया गया। श्रावणी में अपामार्ग के पत्तों एवं कुशा एवं दूर्वा का भी नियमानुसार प्रयोग किया गया। इसके बाद गंगा स्नान कर सूर्यदेव से जाने अनजाने हुए पाप के लिए क्षमा मांग उनसे तेज मांगा।
महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. पवन कुमार शुक्ल के अनुसार श्रावणी उपाकर्म का आयोजन प्राचीन काल से ही नदियों, तालाबों के किनारे विधिपूर्वक ऋषियों-मुनियों द्वारा किया जाता रहा है। कालान्तर में धीर-धीरे यह पद्धति काफी विकसित हुयी और आज वर्ष में एक बार इस उपाकर्म को करने के लिए देश-देशांतर में बैठे जनेऊधारी व्यक्ति काशी आते हैं और इस उपाकर्म को ग्रहण कर अपने को धन्य करते हैं। उन्होंने बताया कि सनातन धर्म में दशहरा क्षत्रियों का प्रमुख पर्व है। दीपावली वैश्यों व होली अन्य जनों के लिए विशिष्ट महत्व का पर्व है। रक्षाबंधन अर्थात श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाने वाला श्रावणी उपाकर्म ब्राह्मणों व द्विजों का सबसे बड़ा पर्व है। वैदिक काल से द्विज जाति पवित्र नदियों व तीर्थों के तट पर आत्मशुद्धि का यह उत्सव मनाती आ रही है। इस कर्म में आंतरिक व बाह्य शुद्धि हेतु गोबर, मिट्टी, भस्म, अपामार्ग, दूर्वा, कुशा एवं वेद मंत्रों द्वारा की जाती है। पंचगव्य महाऔषधि है।
श्रावणी में दूध, दही, घृत, गोबर, गोमूत्र का प्राशन कर शरीर के अंतःकरण को शुद्ध किया जाता है। गंगा स्नान, तर्पण एवं आत्म शुद्धि क्रिया के पश्चात शास्त्रार्थ महाविद्यालय के सरस्वती भवन में सप्तऋषि पूजन किया गया,जिसमें उपस्थित सभी ब्राह्मणों ने सप्त ऋषियों का पूजन-अर्चन कर वर्ष पर्यंत धारण करने वाले यज्ञोपवित को अभिमंत्रित किया।

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