न्यायपालिका को सत्ता के समक्ष सच्चाई रखने की हकदार के तौर पर भी देखा जाना चाहिए: गवई

नयी दिल्ली{ गहरी खोज }: उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई ने कहा है कि लोकतंत्र में न्यायपालिका को न केवल न्याय देना चाहिए, बल्कि उसे एक ऐसी संस्था के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो सत्ता के सामने सच्चाई को रखने की हकदार है।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कोई भी व्यवस्था चाहे वह कितनी भी मजबूत क्यों न हो, उसमें कुछ न कुछ खामियां जरूर सामने आती हैं और उन्हें दूर करने के प्रयास तत्काल किए जाने चाहिए। कोई भी व्यवस्था पेशेवर कदाचार के मुद्दों के प्रति संवेदनशील होती है और दुख की बात है कि न्यायपालिका के भीतर भी भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सामने आए हैं। उन्होंने कहा, “ऐसी घटनाओं का जनता के विश्वास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे पूरी व्यवस्था की अखंडता पर लोगों का भरोसा कम हो सकता है , हालांकि इस विश्वास को फिर से बहाल करने का रास्ता इन मुद्दों से निपटने और हल करने के लिए की गई त्वरित, निर्णायक और पारदर्शी कार्रवाई में निहित है।”
शीर्ष अदालत की एक विज्ञप्ति के अनुसार न्यायमूर्ति गवई ने तीन जून, 2025 को ब्रिटेन की शीर्ष अदालत में ‘न्यायिक वैधता और सार्वजनिक विश्वास बनाए रखने’ विषय पर आयोजित गोलमेज सम्मेलन को संबोधित करते ये विचार व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में जब भी ऐसे (भ्रष्टाचार और कदाचार) मामले सामने आए हैं, तो यहां शीर्ष न्यायालय ने उससे निपटने के लिए लगातार तत्काल और उचित उपाय किए हैं।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “आज के डिजिटल युग में, जहां सूचना स्वतंत्र रूप से प्रवाहित होती है और धारणाएं तेजी से आकार लेती हैं, न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता से समझौता किए बिना सुलभ, विवेकपूर्ण और जवाबदेह होने की चुनौती का सामना करना चाहिए।”
उन्होंने कहा कि विधायिका या कार्यपालिका के विपरीत, न्यायपालिका स्वतंत्रता, अखंडता और निष्पक्षता के साथ संवैधानिक मूल्यों को कायम रखकर अपनी वैधता अर्जित करती है।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण विचार न्यायाधीशों की कथित स्वतंत्रता है, जो उनके कार्यकाल की शर्तों और नियुक्ति प्रक्रियाओं पर निर्भर करती है। उनकी स्वतंत्रता कानूनी प्रणाली के भीतर शक्तियों के पृथक्करण को रेखांकित करती है, जिससे न्यायाधीश स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं।
भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली का बचाव करते हुए न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना हो सकती है, लेकिन कोई भी समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आना चाहिए। न्यायाधीशों को बाहरी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए।”
उन्होंने कहा कि भारत में विवाद का एक प्रमुख मुद्दा यह रहा है कि न्यायिक नियुक्तियों में किसकी प्राथमिकता है। उन्होंने कहा कि 1993 तक सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय कार्यपालिका का होता था। उन्होंने बताया कि इस अवधि के दौरान, भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में कार्यपालिका ने दो बार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को दरकिनार कर दिया गया, जो स्थापित परंपरा के खिलाफ था।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि स्थापित परंपरा के खिलाफ नियुक्तियों के बाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 और 1998 के अपने निर्णयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करते हुए यह स्थापित किया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के साथ मिलकर एक कॉलेजियम का गठन करेंगे, जो शीर्ष न्यायालय में नियुक्तियों की सिफारिश करने के लिए जिम्मेदार होगा।
उन्होंने कहा कि यह कॉलेजियम, न्यायालय की व्याख्या के तहत, अपनी सिफारिशें करने में सर्वसम्मति से कार्य करेगा और इस निकाय की राय अंतिम होगी, इस प्रकार न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी।इस प्रणाली का उद्देश्य कार्यपालिका के हस्तक्षेप को कम करना और अपनी नियुक्तियों में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बनाए रखना है।
मुख्य न्यायाधीश गवई ने आगे बताया कि 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 को इस आधार पर रद्द कर दिया था कि अधिनियम न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्राथमिकता देकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता है। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायालयों के पास स्वतंत्र न्यायिक समीक्षा की शक्ति होनी चाहिए, जिससे न्यायाधीशों को संविधान के प्रावधानों या स्थापित संवैधानिक सिद्धांतों के साथ टकराव करने वाले कानूनों और सरकारी कार्यों की संवैधानिकता का आकलन करने की अनुमति मिले।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि क्या न्यायपालिका मनमाने ढंग से सत्ता के प्रयोग के खिलाफ एक प्रतिसंतुलन के रूप में कार्य करती है। उन्होंने जनता के विश्वास को बढ़ाने के अलावा, न्यायालयों को जनता के लिए सुलभ बनाने के लिए ठोस तर्क के साथ निर्णयों के महत्व पर भी प्रकाश डाला।
मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीशों द्वारा सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों के संबंध में कहा कि यदि कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद कोई सरकारी नियुक्ति लेता है या चुनाव लड़ने के लिए न्यायाधीश पद से इस्तीफा देता है, तो यह महत्वपूर्ण नैतिक चिंताएँ पैदा करता है और सार्वजनिक जांच को आमंत्रित करता है।
उन्होंने कहा, “किसी न्यायाधीश द्वारा राजनीतिक पद के लिए चुनाव लड़ने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर संदेह पैदा हो सकता है, क्योंकि इसे हितों के टकराव या सरकार का पक्ष लेने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। सेवानिवृत्ति के बाद की ऐसी व्यस्तताओं का समय और प्रकृति न्यायपालिका की ईमानदारी में जनता के विश्वास को कम कर सकती है, क्योंकि इससे यह धारणा बन सकती है कि न्यायिक निर्णय भविष्य की सरकारी नियुक्तियों या राजनीतिक भागीदारी की संभावना से प्रभावित होते हैं।”
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इसीलिए उनके कई सहयोगियों और उन्होंने खुद सार्वजनिक रूप से न्यायपालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को बनाए रखने के प्रयास के तहत सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से कोई भूमिका या पद स्वीकार नहीं करने का संकल्प लिया है।
उन्होंने पारदर्शिता के माध्यम से जनता का विश्वास बढ़ाने के लिए उठाए गए कदमों को रेखांकित करते हुए कहा कि न्यायाधीशों द्वारा संपत्तियों का सार्वजनिक खुलासा, अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग, क्षेत्रीय भाषाओं में अदालती निर्णयों का अनुवाद, सभी निर्णयों तक बिना किसी बाधा के पहुंच और राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के माध्यम से लंबित मामलों की वास्तविक समय की जानकारी जैसे निर्णयों को सूचीबद्ध किया।
उन्होंने हालांकि कहा कि किसी भी शक्तिशाली उपकरण की तरह, लाइव स्ट्रीमिंग का उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए, क्योंकि फर्जी खबरें या संदर्भ से बाहर की अदालती कार्यवाही सार्वजनिक धारणा को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है।
उन्होंने कहा, “पिछले हफ्ते ही मेरे एक सहकर्मी ने हल्के-फुल्के अंदाज में एक जूनियर वकील को कोर्ट क्राफ्ट और सॉफ्ट स्किल्स की कला के बारे में सलाह दी थी। इसके बजाय, उनके बयान को संदर्भ से बाहर ले जाया गया और मीडिया में इस तरह से रिपोर्ट किया गया, “हमारा अहंकार बहुत नाजुक है; अगर आप इसे ठेस पहुँचाते हैं, तो आपका मामला खत्म हो जाएगा। इस तरह की रिपोर्टिंग की गई।”
ब्रिटेन के इस कार्यक्रम में मुख्य न्यायाधीश के साथ न्यायामूर्ति विक्रम नाथ और भारत के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव बनर्जी भी थे।