सांसदों को पार्टी व्हिप से ‘आजादी’ क्यों दिलवाना चाहते हैं मनीष तिवारी?

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  • नीरज कुमार दुबे
    लेख-आलेख { गहरी खोज }:
    कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने संसद में ऐसा गैर-सरकारी विधेयक पेश किया है जो भारतीय संसदीय लोकतंत्र की बहस को नई दिशा दे सकता है। हम आपको बता दें कि यह विधेयक सांसदों को पार्टी व्हिप के कठोर बंधन से मुक्त कर, उन्हें अधिकांश विधेयकों और प्रस्तावों पर स्वतंत्र रूप से मतदान करने की अनुमति देने का प्रावधान करता है। मनीष तिवारी का प्रस्ताव है कि विश्वास और अविश्वास प्रस्ताव, वित्त विधेयक और सरकार की स्थिरता से जुड़े मुद्दों को छोड़कर बाकी सभी विषयों पर सांसदों को अपने विवेक, अपने निर्वाचन क्षेत्र की प्राथमिकताओं और सामान्य समझ के आधार पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो।
    मनीष तिवारी का तर्क है कि आज की संसदीय प्रक्रिया में सांसद अक्सर अपनी पार्टी की आधिकारिक लाइन के दबाव में मतदान करने को मजबूर होते हैं, चाहे उनके निर्वाचन क्षेत्र की जनता का हित इससे मेल खाता हो या नहीं। उनके शब्दों में, “पार्टी व्हिप के चलते प्रतिनिधि का कोई महत्व नहीं रह जाता, उसे सोचने और कार्य करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।” हम आपको बता दें कि मनीष तिवारी बार-बार यह प्रश्न उठाते रहे हैं कि क्या लोकतंत्र में प्राथमिकता उस मतदाता की होनी चाहिए जो नेताओं को चुनने के लिए घंटों धूप में खड़ा होता है, या उस राजनीतिक दल की जिसके निर्देशों का पालन करने को सांसद बाध्य हो जाते हैं?
    देखा जाये तो मनीष तिवारी का यह विधेयक नया नहीं है, उन्होंने 2010 और 2021 में भी इसी प्रकार का प्रस्ताव रखा था। लेकिन समय बदलने के साथ इसका महत्व और बढ़ गया है। हम आपको बता दें कि भारत की संसद में व्हिप की व्यवस्था मूलतः दल-बदल रोकने और सरकार की स्थिरता बनाए रखने के लिए बनी थी, लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि यह व्यवस्था सांसदों को मात्र संख्या बल का हिस्सा बना देने का साधन है। ऐसे में मनीष तिवारी का प्रस्ताव संसदीय गरिमा और स्वतंत्र विचार की पुनर्स्थापना की मांग करता है।
    हम आपको बता दें कि इस विधेयक में यह भी स्पष्ट किया गया है कि सांसद की सदस्यता केवल उन्हीं मामलों में समाप्त होनी चाहिए जहां सरकार के अस्तित्व या वित्तीय मसलों पर पार्टी लाइन से विचलन हो। बाकी मामलों में स्वतंत्र मतदान से लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत होगी, क्योंकि कानून-निर्माण तभी गुणवत्तापूर्ण हो सकता है जब सांसद अपने व्यक्तिगत और क्षेत्रीय अनुभवों के आधार पर विचार रख सकें। मनीष तिवारी ने 10वीं अनुसूची में संशोधन की जरूरत पर भी जोर दिया है, ताकि यह आज के राजनीतिक संदर्भ में अधिक प्रासंगिक बन सके। उनका सुझाव है कि 10वीं अनुसूची से जुड़े मामलों की सुनवाई एक न्यायिक अधिकरण करे और अपील की प्रक्रिया स्पष्ट समयसीमा के भीतर पूरी हो।
    दूसरी ओर, मनीष तिवारी के इस विधेयक को समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि वह स्वयं किस प्रकार की राजनीतिक भूमिका निभाते रहे हैं। हम आपको बता दें कि वह कांग्रेस पार्टी के उन नेताओं में रहे हैं जिन्होंने समय-समय पर आधिकारिक रुख से हटकर अपनी स्वतंत्र राय व्यक्त की है। उदाहरण के लिए अग्निपथ योजना के प्रति कांग्रेस का आधिकारिक रुख आलोचनात्मक रहा, मगर मनीष तिवारी ने सार्वजनिक रूप से उसकी तारीफ की थी और उसे एक सुधारवादी कदम बताया था। यह साहस किसी भी बड़े दल में असहमति के सीमित दायरे को देखते हुए उल्लेखनीय है।
    इसी प्रकार, पहलगाम आतंकी हमले के बाद मनीष तिवारी उस सरकारी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बने जो विदेश गया था। विपक्षी दल के सांसद का ऐसी आधिकारिक भूमिका में शामिल होना दर्शाता है कि मनीष तिवारी न केवल एक धारा के भीतर चलने वाले नेता हैं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति जैसे मुद्दों पर भी एक स्वतंत्र व्यावहारिक दृष्टिकोण रखते हैं। साथ ही, मनीष तिवारी कांग्रेस के जी-23 समूह का हिस्सा रहे हैं। यह वह समूह था जिसने कांग्रेस नेतृत्व की निर्णय प्रक्रिया, संगठनात्मक चुनावों और आंतरिक लोकतंत्र पर गंभीर सवाल उठाए थे। जी-23 का गठन ही इस बात का संकेत था कि कांग्रेस जैसे बड़े दल में भी कई वरिष्ठ नेता अधिक पारदर्शिता और सामूहिक निर्णय प्रक्रिया की मांग कर रहे थे।
    इस परिप्रेक्ष्य में मनीष तिवारी का विधेयक केवल तकनीकी संशोधन का मामला नहीं है; यह भारतीय राजनीति में एक व्यापक सिद्धांत यानि सांसद का विवेक बनाम पार्टी अनुशासन, पर बहस का निमंत्रण है। सवाल उठता है कि यदि सांसद जनता की ओर से चुने जाते हैं, तो उन्हें हर मुद्दे पर कठोर पार्टी लाइन के अनुरूप मतदान क्यों करना चाहिए?
    बहरहाल, आज जब राजनीतिक दलों में नेतृत्व केंद्रीकरण बढ़ रहा है और संसदीय बहस कई बार औपचारिकता भर रह जाती है, ऐसे में मनीष तिवारी का प्रस्ताव एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। यह संसद को फिर से विचार, विमर्श और स्वतंत्र राय का मंच बनाने की दिशा में एक कदम माना जा सकता है। आगे यह विधेयक पास हो या न हो, पर यह बहस अवश्य शुरू करता है कि लोकतंत्र किसके लिए है, दलों के लिए या जनता और उनके प्रतिनिधियों के लिए? वैसे यह उल्लेखनीय है कि लोकसभा और राज्यसभा सदस्यों को उन विषयों पर विधेयक पेश करने की अनुमति है, जिन पर उन्हें लगता है कि सरकार को कानून लाना चाहिए। हालांकि कुछ मामलों को छोड़कर, सरकार के जवाब के बाद ज्यादातर निजी विधेयक वापस ले लिए जाते हैं।

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