गीता के इन 7 श्लोकों में छुपा है सफलता और शांति का राज, गीता जयंती पर जरूर

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धर्म { गहरी खोज } : गीता जयंती का पावन पर्व उस पवित्र दिन की स्मृति में मनाया जाता है जब भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को भगवद्गीता का दिव्य उपदेश दिया था। यह दिन मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को आता है और इस दिन को श्रीमद भगवद-गीता के जन्म का प्रतीक माना गया है। इस दिन गीता के श्लोकों को पढ़ना अत्यंत ही शुभ माना जाता है। कई लोग इस दिन व्रत भी रखते हैं और मोक्षदा एकादशी भी इसी दिन मनाई जाती है। चलिए आपको बताते हैं गीता के उन 10 श्लोकों के बारे में जो आपका जीवन बदल देंगे।

गीता जयंती श्लोक

  1. कर्मण्य-एवाधिकार ते मा फलेषु कदाचन |

मा कर्म-फल-हेतुर भूर मा ते सङ्गोऽस्तवकर्मणि ||

अर्थ: तुम्हें अपने निर्धारित कर्तव्य करने का अधिकार है, परन्तु तुम अपने कर्मों के फल के अधिकारी नहीं हो। अपने कर्म के फल में आसक्त मत हो, न ही अकर्मण्यता की ओर प्रवृत्त हो। सरल शब्दों में समझें तो यह श्लोक निःस्वार्थ कर्म करने और परिणामों के बजाय प्रयास पर ध्यान केंद्रित करना सिखाता है। हम अक्सर परिणामों को लेकर परेशान हो जाते हैं। भगवान कृष्ण ने इस श्लोक में बताया है कि परिणामों की चिंता किए बिना ईमानदारी से काम करें, जिससे तनाव कम होता है और आंतरिक शांति मिलती है।

  1. विहाय कामाण्यः सर्वान्पुमंशचरति निष्स्पृहः।
    निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति ॥

अर्थ- जिस व्यक्ति ने इंद्रिय तृप्ति के लिए सभी इच्छाओं को त्याग दिया है, जो इच्छाओं से मुक्त रहता है, जिसने स्वामित्व की सभी भावनाओं को त्याग दिया है और झूठे अहंकार से रहित है केवल वही वास्तविक शांति प्राप्त कर सकता है।

3 .श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ॥

अर्थ- जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान मे समर्पित है और जो अपनी इंद्रियों को वश में करता है, वह इस तरह का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पात्र है और इसे प्राप्त करने के बाद वह शीघ्र ही सर्वोच्च आध्यात्मिक शांति प्राप्त कर लेता है।

  1. युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शांतिमापनोति नैष्ठिकम्।
    अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥

अर्थ- निश्चल भक्त शुद्ध शांति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफलों को मुझे समर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बंध जाता है।

  1. भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
    सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति ॥

अर्थ- जो व्यक्ति मुझे सभी यज्ञों और तपस्याओं का परम भोक्ता, सभी लोकों का स्वामी और सभी जीवों का शुभचिंतक और मित्र मानता है, वह सच्ची शांति प्राप्त करता है। यह ज्ञान प्राप्त करने से व्यक्ति सभी भौतिक दुखों से ऊपर उठ जाता है और परम शांति का अनुभव करता है।

  1. बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
    अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥

अर्थ- जिसने मन पर विजय प्राप्त कर ली है, उसके लिए मन सबसे अच्छा मित्र है; लेकिन जो ऐसा करने में असफल रहा, उसका मन ही सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।

  1. उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
    आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

अर्थ- व्यक्ति को खुद का उद्धार करना चाहिए, न कि पतन क्योंकि हम खुद ही अपने मित्र होते हैं और खुद ही अपना शत्रु भी बन सकते हैं। ऐसे में अगर आप इस बात को समझ लेंगे, तो जीवन की कई समस्याओं से अपने आप छुटकारा मिल जाएगा।

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