बिहार चुनाव : सवाल तो जीतने वालों पर भी हैं

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अरुण कुमार त्रिपाठी
लेख-आलेख { गहरी खोज }:
अब जब दुनिया-जहान को मथने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव जीतकर ‘एनडीए’ की सरकार बन गई है, पूरी चुनावी प्रक्रिया के निहितार्थों पर बात की जानी चाहिए। मसलन, क्या चुनाव जीतने का पवित्र कार्य हो जाने के बाद नीतीश कुमार और उनकी ‘जद(यू)’ कभी लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया के उस नफा-नुकसान की भी सोचेंगे जिसे उन्होंने जीतने की हवस में अनदेखा किया है? प्रस्तुत है, इसी पर टिप्पणी करता अरुण कुमार त्रिपाठी का यह

बिहार चुनाव पर देश क्या, पूरी दुनिया की निगाहें टिकी थीं। जिनकी भी लोकतंत्र में आस्था है उन्हें यह आशा थी कि बिहार भारत में लोकतंत्र के हरण के धारावाहिक सिलसिले को पलट देगा और फिर शुरू होगा पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल से होते हुए उत्तरप्रदेश तक में अन्याय, झूठ और अत्याचार को उखाड़ फेंकने का चक्र, जो आखिर में केंद्रीय सत्ता के परिवर्तन तक जाएगा। लेकिन बिहार में ‘महागठबंधन’ की भारी पराजय और ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ की प्रचंड विजय के उपरांत पैदा हुई लोकतांत्रिक शक्तियों की निराशा देखकर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ का स्मरण हो गया।
वही कविता जो 1936 में तब लिखी गई थी, जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आशा और निराशा के ऊब-चूब से गुजर रहा था। महात्मा गांधी को समझ नहीं आ रहा था कि अंग्रेजों से किस प्रकार लड़ा जाए कि जल्दी आजादी मिल जाए। अंग्रेज निरंतर भारत को विभाजित कर रहे थे और गांधी के समक्ष एक ओर मोहम्मद अली जिन्ना की चुनौती थी तो दूसरी ओर सावरकर और तीसरी ओर भीमराव आंबेडकर की।
निराला की कविता में जो निराशा छलकती है उसमें हम इस युग की निराशा के अंश देख सकते हैं। निश्चित तौर पर इस पराजय के बाद हमने ‘इंडिया समूह’ के नेताओं को रोते हुए नहीं देखा, लेकिन वे उसी प्रकार रो रहे होंगे जैसे रावण से पराजित होकर रण से लौटे राम के नेत्रों से आंसू गिर रहे थे। निराला की कविता में आज की लोकतांत्रिक और अधिनायकवादी शक्तियों के संघर्ष को हम देख सकते हैं।

पराजय का सिलसिला और उससे उपजी निराशा इतनी गहरी है कि वे तमाम लोग भी इस विजय को वैधानिक और नैतिक मान रहे हैं जो न सिर्फ दिन-रात लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की बात करते हैं, बल्कि उसके लिए सड़क से न्यायालय तक सक्रिय भी रहते हैं। ऐसे व्याख्याकारों की लंबी कतार है जो साफ कह रहे हैं कि महिलाओं, अति पिछड़ों और सवर्ण मतों का बड़ा हिस्सा राजग के पक्ष में एकजुट था। नीतीश कुमार के सामाजिक न्याय के कंधे पर हिंदुत्व ने सवारी कर रखी थी इसलिए इसे जीतना ही था।

राहुल गांधी विदेश चले गए, ‘एसआईआर’ पर शुरू में यात्रा की, लेकिन बाद में उसे मुद्दा नहीं बना पाए, उतनी मेहनत नहीं कर पाए जितनी ‘एनडीए’ के नेताओं ने की, टिकट ठीक से नहीं बांटा, तेजस्वी को मुख्यमंत्री पहले नहीं घोषित किया, जंगल राज का खौफ वगैरह-वगैरह। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना ने चमत्कार किया और बड़ी संख्या में महिलाओं ने पुरुषों से अलग होकर वोट दिया।

जब ऐसी योजनाएं महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में काम कर सकती हैं तो बिहार में क्यों नहीं। फिर ऐसी योजनाओं का हथकंडा तृणमूल कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा अपनाता है तो जनता दल (एकी) के अपनाने में क्या दिक्कत है। नीतीश कुमार को जनता ने शानदार विदाई दी और आपरेशन सिंदूर से लेकर दूसरे मोर्चों तक प्रकट भाजपा और संघ के राष्ट्रवाद की काट न तो जाति जनगणना से की जा सकती है और न ही नौकरियां देने के खोखले वादे से।

इन तमाम तर्कों ने पूर्व निर्धारित इस प्रचंड जीत को सही साबित करना और विपक्ष और उसके नेताओं को नाकारा बताना शुरू कर दिया है। इस प्रक्रिया में उस हिंसक और निम्नस्तरीय भाषा की अनदेखी की जा रही है जिसका प्रयोग चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उनके केंद्रीय मंत्रियों ने किया। इस बात की भी अनदेखी की जा रही है कि बीच चुनाव में महिला रोजगार योजना की राशि खाते में दिया जाना ‘आदर्श आचार संहिता’ का स्पष्ट उल्लंघन है।

इस बात की भी उपेक्षा हो रही है कि इस दौरान अपराधियों ने किस प्रकार चुनाव को न सिर्फ प्रभावित किया, बल्कि चुनाव में विजय भी हासिल की। इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि महिलाओं के खाते में दस हजार की राशि स्थानांतरित करने के अलावा धनबल और सरकारी बल का अनौपचारिक रूप से कितना प्रचंड प्रयोग हुआ।
इस बीच ‘एसआईआर’ के मुद्दे के प्रभावहीन होने का भी सारा दोष विपक्ष पर ही मढ़ा जा रहा है। न तो उस प्रक्रिया में काटे गए और जोड़े गए नामों पर चर्चा हो रही है और न ही इस बात पर चर्चा हो रही है कि चुनाव आयोग किस प्रकार निरंतर पारदर्शिता से दूर चुनावों को सत्तारूढ़ दलों के जश्न और विपक्ष के शोक का आयोजन बनाता जा रहा है। असल में बिहार के इन चुनाव परिणामों ने एक बात को प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय लोकतंत्र में न सिर्फ संस्थाएं भ्रष्ट और अनैतिक हुई हैं, बल्कि समाज भी अनैतिक और भ्रष्ट हुआ है।

बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि नीतीश कुमार ने स्त्रियों के सबलीकरण के बहाने स्त्रियों को भी मरते हुए लोकतंत्र के प्रति संवेदनहीन बना दिया है। अगर महिलाओं को राष्ट्रीय स्तर पर छीने जा रहे संवैधानिक अधिकारों की पीड़ा नहीं दिखती और खाते में आई हुई रकम से वोट को बेंच देने की सौदेबाजी ज्यादा ठीक महसूस होती है तो फिर मान लेना चाहिए कि नीतीश कुमार ने अपनी सत्ता के लिए समाजवाद, सामाजिक न्याय और नारी सशक्तीकरण को पूंजीवाद और हिंदुत्व की चेरी बना दिया है।

बिहार से लोकतंत्र की वापसी की आशा वे लोग लगाए हुए थे जिनके मन-मानस में यह स्मृति है कि बिहार अन्याय के विरुद्ध क्रांति की भूमि है। वे जिनके अवचेतन में कहीं बुद्ध बसे हैं, कहीं महावीर तो कहीं वैशाली और लिच्छिवियों का गणतंत्र है। जो यकीन करते हैं कि यही वह धरती है जहां से वीर कुंअर सिंह अंग्रेजों की गुलामी खत्म करने निकले थे। जहां बिरसा मुंडा और सीधू कान्हूं ने उलगुलान किया था। जहां पीतांबर और नीलांबर ने सत्तावन में क्रांति का बिगुल बजाया था।

जहां महात्मा गांधी ने चंपारण सत्याग्रह शुरू किया और जहां जयप्रकाश नारायण पैदा हुए जिसके बारे में दिनकर ने लिखा था कि जिसके चरण चिह्न इतिहास अपने उर पर अंकित कर लेता है। वही जयप्रकाश जिन्होंने लोकतंत्र को नया रूप देने के लिए 1974 में ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया। वहीं जहां बाबू राजेंद्र प्रसाद जैसे देशभक्त पैदा हुए।

इस देश की नैतिक लोकतांत्रिक शक्तियां यह भूल रही हैं कि रावण के आमंत्रण पर उसके पक्ष में युद्ध करने के लिए पूंजीवाद और फासीवाद की प्रचंड शक्तियां मैदान में उतर चुकी हैं। वे रावण को अंक में लेकर घूम रही हैं। अविभाजित बिहार पहले अपने खनिजों के कारण आंतरिक उपनिवेश बना था, अब पश्चिमी तट के कारपोरेट द्वय और राजनेता द्वय के लिए चारागाह बनने की तैयारी में है। बिहार क्या, पूरा देश इन शक्तियों के चंगुल में फंस चुका है। पंजाब और हरियाणा से प्रतिरोध जरूर उभरता है, लेकिन वह चुनावी विजय और राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन तक पहुंच नहीं पाता।

डॉ. आंबेकर ने कहा था कि लोकतंत्र न तो सिर्फ चुनावी प्रणाली है, न ही सिर्फ संस्थाओं से निर्मित होता है। वह निर्मित होता है एक ऐसे समाज से, जहां पर भाईचारा होता है, जहां होती है पारदर्शिता और सामाजिक, आर्थिक समानता। वह एक प्रणाली से अधिक संस्कृति है। आज धनबल, सत्ताबल और हिंसक भाषा के प्रहार से घायल लोकतंत्र अपनी प्राण रक्षा के लिए छटपटा रहा है। उस रक्षा की आशा सिर्फ बिहार से करना कुछ अधिक ही था। इसलिए देश की लोकतांत्रिक शक्तियों को बिहार को क्षमा करते हुए अलोकतांत्रिक शक्तियों की नकल नहीं करनी चाहिए। उन्हें नैतिक शक्तियों की आराधना करते हुए साधन की पवित्रता के साथ इस लंबी लड़ाई को चलाना चाहिए। अरूण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय’ में प्रोफेसर रहे हैं।

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