हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला

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संपादकीय { गहरी खोज }: न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर व राकेश कैंथला की खंडपीठ ने कश्मीर चंद शांड्याल की जनहित याचिका जिसमें हिन्दू सार्वजनिक धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ निधि अधिनियम 1984 का अनुपालन सुनिश्चित करने का निर्देश मांगा गया था, अपने फैसले में हिमाचल उच्च न्यायालय ने मंदिरों को दान में मिले धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए व्यापक आदेश दिए हैं। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि मंदिर के धन का उपयोग वेदों, योग की शिक्षा, मंदिरों के रखरखाव, पुजारियों को वेतन वित्तीय सहायता, हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार आदि पर किया जाएगा। इस राशि का उपयोग उन सार्वजनिक भवनों, पुलों, सड़कों आदि के निर्माण पर नहीं किया जाएगा, जो राज्य ने बनवाने हैं। न ही राशि का उपयोग मंदिर आने वाले वीआइपी के लिए उपहार और स्मृति चिन्ह खरीदने में होगा। यह हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि देवता न्यायिक व्यक्ति हैं, धन देवता का है, सरकार का नहीं, ट्रस्टी केवल संरक्षक हैं। मंदिर के धन का दुरुपयोग आपराधिक विश्वासघात जैसा है। हाई कोर्ट ने फैसले में कहा कि हिंदू धर्म की पृष्ठभूमि और इतिहास को ध्यान में रखते हुए अधिनियम की धारा 17 के अंतर्गत किए जाने वाले व्यय को समझना होगा। याचिकाकर्ता की चिंता उचित है। भक्त मंदिरों को इस विश्वास के साथ दान देते हैं कि इससे देवताओं की देखभाल में सहायता मिलेगी। मंदिरों का रखरखाव होगा व सनातन धर्म का प्रचार होगा। जब सरकार इस चढ़ावे को अधिकार में ले लेती है, तो विश्वासघात करती है। कोर्ट ने कहा कि अगर ट्रस्टी ने दान का दुरुपयोग किया है या दुरुपयोग करने का कारण बना है, तो राशि वसूल की जाएगी। हाई कोर्ट ने निर्णय में 31 बिंदु बताए हैं जिन पर धन का उपयोग किया जाएगा। कोर्ट ने कहा कि इस धन से वेदों एवं योग शिक्षा, अध्ययन व प्रचार के लिए बुनियादी ढांचा जैसे गुरुकुल तैयार करें व अन्य मंदिरों का रखरखाव किया जाए। गोशालाओं का संचालन करें। भेदभाव व अस्पृश्यता मिटाने के लिए गतिविधियां शुरू करें। अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा देने में राशि खर्च की जाए। पंडितों व पुजारियों को प्रशिक्षित करने के लिए बुनियादी ढांचा और व्यवस्था बनाने, हिंदू धर्म के प्रसार और विश्वविद्यालयों में छात्रवृत्तियां एवं सीटें प्रदान करने के लिए दान राशि उपयोग करें। दान को बढ़ावा देने, यज्ञशाला और हाल बनाने के लिए दान राशि का उपयोग करें।

नेत्र जांच व रक्तदान शिविर लगाने, निराश्रित, वृद्धाश्रमों व अनाथालय की मदद पर भी राशि खर्च होगी। मंदिरों को मासिक आय-व्यय, दान से वित्त पोषित परियोजनाओं का विवरण देना होगा। सड़कों, पुलों और सार्वजनिक भवनों का निर्माण, जो सरकारों द्वारा बनाए जाने हैं या जो मंदिर से जुड़े नहीं है सरकारी कल्याणकारी योजना, निजी व्यवसाय या उद्योगों में निवेश, दुकाने, मॉल या होटल चलाने में, मंदिर आयुक्त व मंदिर अधिकारियों के लिए वाहन खरीदने और मंदिर आने वाले वीआइपी के लिए उपहार खरीदने में इस धन का उपयोग नहीं हो सकता।

उच्च न्यायालय ने मंदिर प्रबंधक कमेटियों को भी मंदिर की मासिक आय-व्यय, दान से वित्त पोषित परियोजनाओं का विवरण और लेखा परीक्षा सारांश नोटिस बारे ये वेबसाइटों पर सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने के आदेश दिए हैं ताकि भक्तों में यह विश्वास पैदा हो कि उनके दान का उपयोग हिन्दू धर्म के प्रचार और हिन्दुओं के कल्याण के लिए किया जा रहा है।

तुष्टिकरण की राह पर चलते हुए कई प्रदेशों की सरकारों ने ऐतिहासिक मंदिरों का अधिकरण कर मंदिर के चढ़ावे का अपनी मनमर्जी से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। मंदिरों के रख-रखाव के प्रति सरकारें उदासीन रहीं। चढ़ावे की राशि से राजनीतिक हित साधने का खेल शुरू हो गया। हज यात्रियों का खर्च भी मंदिरों के चढ़ावे की राशि से जाने के भी समाचार हैं। ऐसी परिस्थितियों में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जो आदेश दिए हैं वह क्रांतिकारी और सनातन धर्म के पुनः उत्थान में सहायक होंगे। न्यायालय का मंदिर कमेटियों को दान में आ रही राशि और खर्च को लेकर विवरण देने का जो आदेश दिया है वह स्वागतयोग्य और समय की मांग अनुसार है। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सरकारी उदासीनता का सबसे

अधिक शिकार हुए हैं, तो वह मंदिर ही है। मंदिर सनातन धर्म व संस्कृति में विशेष स्थान रखते हैं। मंदिरों को लेकर पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्ण अपनी पुस्तक ‘धर्म और समाज’ में लिखते हैं-‘मंदिर हिन्दू धर्म के दृश्य प्रतीक हैं। वे स्वर्ग के प्रति पृथ्वी की प्रार्थनाएं हैं। वे एकान्त और प्रभाबोत्पादक स्थानों पर बने हुए हैं। हिमालय के महिमामय और पावन तुंग शिखर महान मंदिरों के लिए स्वाभाविक पृष्ठभूमि हैं। ब्राह्म मुहूर्त में उपासना के लिए नदी-तीर पर जाने की प्रथा का पालन शताब्दियों से होता चला आ रहा है। विश्राम और रहस्य से युक्त मंदिरों के भवनों का सौन्दर्य, असंगता तथा विस्मय का भाव जगाने वाली धुंधली ज्योतियां, गान और संगीत, मूर्ति और पूजा, इन सबमें व्यंजना की (संकेत करने की) शक्ति है। सब कलाओं, वास्तु कौशल, संगीत, नृत्य, कविता, चित्रकला और मूर्ति शिल्प, का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि हम धर्म की उस शक्ति को अनुभव कर लें, जिसकी परिभाषा ही नहीं की जा सकती और जिसके लिए कोई भी कला यथेष्ट वाहन नहीं है। जो लोग पूजा में भाग लेते हैं, वे उस ऐतिहासिक हिन्दू अनुभव और उन प्रगाढ़ आध्यात्मिक शक्तियों से मिलकर एक हो जाते हैं, जिन्होंने हमारे आनुवंशिक उत्तराधिकार के सर्वोत्तम अंश को गढ़ा है।… मंदिर बहुत लम्बे समय तक संस्कृति के केंद्र रहे हैं। कलाकारों ने अपनी सर्वोत्तम कृतियां वहां समर्पित कीं, कवियों ने अपनी कविताएं और संगीतज्ञों ने अपने गीत पहले-पहल मन्दिरों में गाए और उसके बाद वे बाहर की दुनिया में आए । सुन्दरता के सब पवित्रीकृतरूप हमारे अन्दर शाश्वत के प्रति एक अनुभूति जगाते हैं। मन्दिरों को जनता की संस्था बनना चाहिए और उनमें सबका प्रवेश हो सकना चाहिए। जिन लोगों का जीवन-निर्वाह मन्दिरों से होता है, उन पंडों को, जो प्रायः बहुत ही असंस्कृत और धनलोलुप होते हैं, विद्या प्राप्त करने के लिए और सुसंस्कृत बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। मन्दिरों में पूजा का उपयोग ईश्वर में विश्वास को बढ़ाने के लिए, और मन तथा आचरण की पवित्रता को बढ़ाने के लिए है।’

सनातन धर्म में विश्वास रखने वालों को समझना होगा कि मंदिर हमारी संस्कृति के केद्र बिन्दू हैं। इनके प्रति दिखाई उदासीनता हमारी अपने धर्म के प्रति उदासीनता है। सरकारों ने हिन्दुओं की मंदिरों के प्रति उदासीनता का लाभ लेते हुए ही मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लेकर मंदिर धन का अपनी मनमर्जी से इस्तेमाल किया। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने मंदिरों की दान में मिले धन के इस्तेमाल को लेकर जो आदेश दिए हैं यह राष्ट्रीय स्तर पर भी लागू होने चाहिएं। दक्षिण के मंदिरों में करोड़ों रुपए की दान में मिली धन राशि को मंदिर के रख-रखाव व हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु न लगाकर राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए इस्लेमाल किया जा रहा है, इस प्रति सनातनियों को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

मंदिर कमेटियों में परिवारवाद व राजनीतिक हस्तक्षेप कम हो इस पर भी हिन्दू समाज को चिंतन करने की आवश्यकता है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का फैसला सनातन समाज व सरकार को जागरूक करने के साथ-साथ आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरित करने वाला भी है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने जो राह दिखाई है उसी पर चलकर ही हिन्दू समाज का वर्तमान व भविष्य सुरक्षित रहेगा।

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