जातिगत भेदभाव

संपादकीय { गहरी खोज }: देश में अभी सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई बनाम वकील राकेश कुमार का मामला चर्चा में था कि हरियाणा के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार द्वारा की आत्महत्या ने जातिगत भेदभाव के मामले को एक बार फिर सड़क से लेकर सत्ता के गलियारों में गर्मा दिया है। उपरोक्त दोनों मामले पढ़े-लिखे व समाज में उच्च स्थान रखने वालों से संबंधित हैं, लेकिन इनके साथ-साथ पिछले माह शिमला में एक दलित बच्चे के साथ जिस तरह का व्यवहार हुआ, उस कारण डरे व सहमे बच्चे ने आत्महत्या कर ली। रायबरेली में एक दलित को ड्रोन चोर समझकर उसकी हत्या कर दी गई। यह सब मामले चिंताजनक हैं।
प्रधान न्यायाधीश गवई विरुद्ध सोशल मीडिया पर गैरकानूनी और आपत्तिजनक सामग्री डालने पर कार्रवाई करते हुए पंजाब पुलिस ने राज्य के विभिन्न जिलों में 100 से अधिक सोशल मीडिया मंचों विरुद्ध शिकायतें दर्ज की हैं। पुलिस प्रवक्ता के अनुसार विचाराधीन पोस्ट और वीडियो में जातिवादी और घृणा से भरे भाव हैं जिनका उद्देश्य सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देना, सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ना और न्यायिक संस्थानों के प्रति सम्मान को कम करना है। सोशल मीडिया सामग्री में प्रधान न्यायाधीश को निशाना बनाने वाले गैरकानूनी और आपत्तिजनक पोस्ट शामिल थे। संज्ञेय अपराधों के खुलासे की सूचना मिलने पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 और भारतीय न्याय संहिता की संबंधित धाराओं के तहत विभिन्न पुलिस थानों में प्राथमिकी दर्ज की गई हैं। हरियाणा के आईपीएस वाई पूरन कुमार की आत्महत्या के मामले में जापान से लौटीं आईएएस पत्नी अमनीत पी कुमार ने हरियाणा के डीजीपी शत्रुजीत कपूर और रोहतक के एसपी नरेंद्र बिजारणिया के खिलाफ सेक्टर-11 पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करवाई। चार पन्नों के शिकायती पत्र में उन्होंने डीजीपी व एसपी पर उनके पति के उत्पीडन, जाति आधारित भेदभाव और प्रताड़ित करने का आरोप लगाया। दोनों पर पति को आत्महत्या के लिए उकसाने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पति की मौत से ठीक पहले डीजीपी कपूर के कहने पर उनके खिलाफ रोहतक में झूठा केस दर्ज किया गया। यह सब षड्यंत्र के तहत किया गया, जिस कारण उनके पति ने मंगलवार को आत्महत्या की। आईएएस अमनीत ने दावा किया कि उनके पति को एससी-एसटी समुदाय से होने के कारण जाति आधारित गालियां दी गईं। सार्वजनिक रूप से अपमानित भी किया गया। उन्हें पति का आठ पन्नों का सुसाइड नोट मिला है, जिसमें उन्होंने अपने दर्द और उत्पीड़न बारे में लिखा है। उसमें कई अन्य अधिकारियों के नाम भी हैं। यह भी दावा किया कि पुलिस अधिकारियों द्वारा सीएफएसएल से बरामद किए जाने के अलावा उन्हें अलमारी और लैपटाप से भी सुसाइड नोट की कापी मिली है, जो उन्होंने पुलिस को सौंप दी है। उन्होंने मांग की है कि दोनों आरोपित अफसरों के खिलाफ तुरंत एफआइआर दर्ज कर गिरफ्तार किया जाए, ताकि साक्ष्यों से छेड़छाड़ न हो। अमनीत ने कहा कि वह न्याय की लड़ाई लड़ेंगी। किसी को छोड़ेंगी नहीं।
शिकायत की प्रति उन्होंने चंडीगढ़ के मुख्य सचिव एच राजेश प्रसाद, गृह सचिव मनदीप सिंह बराड़ और एसएसपी कंवरदीप कौर को भी भेजी है।
आईपीएस पूरन कुमार ने आत्महत्या से पहले सुसाइड नोट में लिखा ‘मैं अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित हूं। ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे प्रति अब यह शत्रुता समाप्त होनी चाहिये। हरियाणा के एडीजीपी रैंक के आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार ने अंग्रेजी में लिखे अपने आठ पेज के सुसाइड नोट में आखिर में यही दो महत्वपूर्ण लाइनें लिखी हैं। उनके सुसाइड नोट में हरियाणा के 16 सीनियर आईपीएस और आईएएस अधिकारियों के नाम है। वाई पूरन कुमार ने अपने सुसाइड नोट को फाइनल नोट का नाम देते हुए उसमें अगस्त 2020 से अब तक चले आ रहे उत्पीड़न का जिक्र किया। उन्होंने सुसाइड नोट में लिखा कि अगस्त 2020 से हरियाणा के संबंधित वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा जारी जाति आधारित भेदभाव, लक्षित मानसिक उत्पीड़न, सार्वजनिक अपमान और अत्याचार का सिलसिला चला आ रहा है, जो अब असहनीय हो गया है। वाई पूरन कुमार के सुसाइड नोट का मूल यही था कि उन्हें विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकारियों ने बार-बार प्रताड़ित किया और सरकार के हस्तक्षेप के बाद भी यह उत्पीड़न बंद नहीं हो पाया।’
उपरोक्त सब घटनाएं दिल को दुखाने वाली, निंदाजनक और संविधान विरुद्ध है। जातिगत आधारित भेदभाव सदियों पुराना है। डा. भीमराव अम्बेडकर सारा जीवन भेदभाव का शिकार रहे लेकिन वह इस व्यवस्था के विरुद्ध लड़ते रहे। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। आजादी मिलने के बाद उन्होंने भारतीय संविधान में भारतीय नागरिकों को एक समान दर्जा दिया। आजादी से पहले हिन्दू समाज में जातिवाद को लेकर उन्होंने जो कहा उनके कुछ अंश आप सम्मुख रखना चाहूंगा। ‘हिंदू हमेशा एक गुट या समूह के अलगाव या एकाकी रहने की शिकायत करते हैं और उन पर समाज विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि यह समाज विरोधी भावना उनकी अपनी जाति व्यवस्था की देन है। एक जाति दूसरी के खिलाफ जहर उगलती है जिस तरह पिछले युद्ध के दौरान जर्मन अंग्रेजों के खिलाफ नफरत का जहर उगल रहे थे। हिंदुओं का साहित्य जातिगत वंशावलियों से भरा पड़ा है जिसमें एक जाति को महान् और दूसरी को नीच बताया गया है। सह्याद्रिखंड इस तरह के साहित्य का ही उदाहरण है। यह समाज विरोधी भाव सिर्फ जातियों तक ही सीमित नहीं है। इसकी जड़ें गहरी हैं और इससे उपजातियों के आपसी संबंधों पर भी असर पड़ा है। मेरे प्रांत में गोलक ब्राह्मण, देवरुख ब्राह्मण, कराड ब्राह्मण, पाल्शे ब्राह्मण और चितपावन ब्राह्मण, सभी ब्राह्मण जाति की उपजातियों होने का दावा करते हैं। लेकिन उनके बीच समाज विरोधी भावना उतनी ही कटु है जितनी उनमें और गैर ब्राह्मण जातियों के बीच है। इसमें अचरज की कोई बात नहीं। समाज विरोधी भावना तभी मिलेगी जब एक समूह सिर्फ अपना स्वार्थ देखेगा जिससे दूसरे समूहों से वह पूरी तरह से कट जाएगा। यह समाज विरोधी भावना सिर्फ अपने हितों की रक्षा करने का भाव ही एक जाति को दूसरी से तोड़ता है। ब्राह्मणों की पहली चिंता गैर ब्राह्मणों के खिलाफ अपने हितों की रक्षा करना है और गैर ब्राह्मणों का मकसद ब्राह्मणों से अपने हितों को बचाना है। इसी वजह से हिंदू अलग-अलग जातियों का संग्रहण ही नहीं, बल्कि आपस में लड़ते कई समूह हैं, जो सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं। जाति व्यवस्था का यह एक और निंदनीय लक्षण है।…हिंदू धर्म मिशनरी था या नहीं, यह विवादास्पद मसला है। कुछ का मानना है कि यह कभी मिशनरी था ही नहीं। दूसरों का कहना है कि यह मिशनरी था। एक समय में हिंदू धर्म मिशनरी था, यह स्वीकार करना होगा। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत में इसका इतना प्रचार नहीं हो सकता था। यह भी तथ्य स्वीकार करना होगा कि अब यह मिशनरी नहीं रह गया है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि हिंदू धर्म मिशनरी था या नहीं। असल सवाल यह है कि हिंदू धर्म क्यों मिशनरी धर्म नहीं रह गया? मेरा जवाब यह है जब हिंदुओं में जाति व्यवस्था बढ़ने लगी तो हिंदू धर्म मिशनरी नहीं रह गया। जाति व्यवस्था धर्मातरण की विरोधी है। धर्मांतरण में श्रद्धा और मतप्रणाली ही एकमात्र है। धर्मांतरण से जुड़ी एक और बड़ी तथा अधिक महत्त्वपूर्ण समस्या धर्मांतरित लोगों के लिए दूसरे समुदाय के सामाजिक जीवन में जगह बनाना है। धर्मांतरितों को कहाँ, किस जाति में रखने की समस्या। दूसरे धर्म के लोगों को अपने धर्म में जोड़ने की इच्छा रखने वाले हिंदुओं को इस समस्या से गुजरना पड़ा होगा। क्लबों की तरह जाति की सदस्यता सभी के लिए खुली नहीं होती। जाति के नियमों के तहत इसकी सदस्यता उसी जाति में जन्म लेने वालों को ही मिलती है। जातियाँ स्वायत्त होती हैं और कहीं भी ऐसा कोई अधिकार नहीं है जिससे एक जाति को किसी नव आगंतुक को उसके सामाजिक जीवन का हिस्सा बनाने के लिए मजबूर किया जा सके। हिंदू समाज कई जातियों का संग्रहण है, लिहाजा धर्मातरितों के लिए कोई जगह नहीं है। यही वजह है कि जातियों का फैलाव नहीं हो सका और दूसरे समुदाय के लोग जाति व्यवस्था के कारण इसमें शामिल नहीं हो सके। जब तक जाति व्यवस्था रहेगी, हिंदू धर्म कभी मिशनरी नहीं हो सकेगा और शुद्धि निरर्थक और मूर्खतापूर्ण होगी …हिंदुओं के आचरण पर जातिवाद का प्रभाव निंदनीय है। जातिवाद से जनभावना मर गई है। इससे परोपकार की भावना खत्म हो गई है। इससे जनमत बनाना असंभव हो गया है। हिंदू की जनता उसकी जाति में है। उसकी जिम्मेदारी सिर्फ उसकी जाति के प्रति है। उसकी वफादारी सिर्फ उसकी जाति के लिए है। गुण अब जाति आधारित हो गए हैं और नैतिकता जाति तक सिमटकर
रह गई है। काबिलों के लिए कोई हमदर्दी नहीं है। उनके लिए कोई प्रशंसा नहीं है। जरूरतमंदों के लिए कोई सहायता नहीं है। परोपकार है, लेकिन जाति से आरंभ होकर उसी पर खत्म हो जाता है। सहानुभूति है, लेकिन दूसरी जाति के लोगों के लिए नहीं। क्या एक हिंदू एक महान् एवं अच्छे इंसान का नेतृव स्वीकार करेगा और उसका अनुसरण करेगा। एक महात्मा को छोड़ दिया जाए तो जवाब यही होगा कि वह ऐसे ही नेता का अनुसरण करेगा जो उसकी जाति का हो। एक ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मण का और कायस्थ सिर्फ कायस्थ का अनुसरण करेगा। हिंदू किसी दूसरी जाति के व्यक्ति के गुणों की प्रशंसा नहीं कर सकता। प्रशंसा करने का गुण है, लेकिन तभी जबकि वह व्यक्ति उसकी जाति का हो। यह पूरी नैतिकता उतनी ही बुरी है जितनी कि आदिवासी नैतिकता। मेरी जाति का आदमी, फिर चाहे वह सही हो या गलत। वह अच्छा हो या बुरा। यह गुण या अवगुण के आधार पर तय करने वाली बात ही नहीं है। क्या हिंदुओं ने अपनी जाति के हितों के लिए अपने देश के खिलाफ राजद्रोह नहीं किया है?’
डा. अम्बेडकर का यह प्रश्न कि ‘क्या यह सोच देश विरुद्ध विद्रोह नहीं’, आज भी उत्तर मांग रहा है। हिन्दू समाज आज भी जातिवाद का शिकार है। हिन्दू समाज की यह सोच उसके विकास में बाधा है। इस बीमार सोच से मुक्ति में ही हिन्दू समाज का विकास छिपा है। आईपीएस पूरन कुमार ने आत्महत्या का निर्णय किन परिस्थितियों व मजबूरियों में लिया उसका संकेत तो सुसाइड नोट से मिलता है। लेकिन आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं है। डा. भीमराव अम्बेडकर के जीवन से प्रेरणा लेकर संघर्ष जारी रखना ही उचित रास्ता है। शिमला में 12 वर्षीय बच्चे द्वारा आत्महत्या का मामला और प्रधान न्यायाधीश गवई विरुद्ध टिप्पणियां और दलित व्यक्ति को शक के आधार पर मार देना सब घटनाएं समाज व सरकार दोनों को कटघरे में खड़ा करने वाली हैं। भारत को अगर विकसित भारत बनना है तो इस जातिगत भेदभाव को समाप्त करना होगा।