आबूरोड पालिका की एनजीटी की अवहेलना के मौन समर्थक तो नहीं बन रहे डीएलबी निदेशक और पीडब्ल्यूडी!

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एनजीटी के मई 2025 के आदेश के बाद भी आबूरोड के हृषिकेश मार्ग पर नगर पालिका के द्वारा करवाया जा रहा पेवरी करण।
आबूरोड{ गहरी खोज }: आबूरोड नगर पालिका की नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के 21 मई 2025 के आदेशों की अवहेलना रोकने में पूरी तरह से नाकाम रही हैं। फिलहाल एनजीटी के इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट या राजस्थान उच्च न्यायालय के द्वारा रोक लगाए जाने की कोई जानकारी सामने नहीं आई है। ऐसे में सवाल ये उठ रहा है कि यहां के प्रभारी रहते हुए भी डीएलबी निदेशक और आबूरोड पीडब्ल्यूडी के अधिशासी अधिकारी एनजीटी के कंटेंप्ट में सहायक तो नहीं बन रहे हैं। ये ही नहीं जिले का पर्यावरण नियंत्रण विभाग का मुख्यालय आबूरोड शहर में होने के बावजूद वो इस पर नजर रखने में तो फेल नहीं हुआ है।
आबूरोड नगर पालिका की अधिशासी अधिकारी नगर पालिका बोर्ड के उस निर्णय की पालना करने से रोक नहीं पाए जिस पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने अपने मई 2025 के आदेश में ही रोक लगा दी थी। जबकि नगर पालिका अधिनियम के तहत अधिशासी अधिकारियों को नगर पालिकाओं में बैठाया ही इसलिए जाता है कि वो नगर पालिका बोर्ड के नेताओं के नियम और कानून विरोधी निर्णयों को नोट ऑफ डिसेंट के जरिए रोक सकें।
लेकिन आबूरोड नगर पालिका की अधिशासी अधिकारी एनजीटी के द्वारा 21 मई 2025 के भारत के सभी प्रदेशों को दिए गए आदेशों की कथित अवहेलना करते हुए पूरे शहर में इस निर्णय बाद भी पेवरीकरण करवाना जारी रखा। एनजीटी ने समस्त राज्यों में सड़क किनारे के पेवरीकरण और कांक्रीटीकरण को रोकने के लिए अपनी गाइडलाइन बनाने और तब तक उत्तर प्रदेश की गाइडलन कि पालना करने एक साथ निर्देश जारी किए थे।
डीएलबी ने भी इस आदेश की अवहेलना करने से आबूरोड नगर पालिका के अधिशासी को नहीं रोका। इतना ही नहीं आबूरोड नगर पालिका ने अपने अधिकारों से परे जाकर पीडब्ल्यूडी की सड़कों के किनारे भी इंटरलॉक ब्लॉक लगाकर कॉन्क्रीटीकरण कर दिया। इसमें आबूरोड पीडब्ल्यूडी के अधिशासी अधिकारी मौन सहमति दिए रहे। उन्होंने नगर पालिका को एनजीटी के आदेशों की अवहेलना से रोका नहीं।
उस समय अंग्रेजी अखबार द प्रिंट में पीटीआई के हवाला से प्रकाशित खबर के अनुसार एनजीटी अपने 80-पृष्ठों के विस्तृत आदेश में कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी दिशानिर्देश व्यापक पहलुओं को कवर करते हैं और राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के मूल दिशानिर्देशों के अनुरूप हैं, जब तक कि संबंधित राज्य/केंद्र शासित प्रदेश द्वारा अलग दिशानिर्देश जारी नहीं किए जाते।” न्यायाधिकरण ने आगे कहा, “हम ये निर्देश पूरे भारत में जारी कर रहे हैं और इस आदेश की एक प्रति सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों/प्रदूषण नियंत्रण समितियों को आवश्यक कार्रवाई और अनुपालन के लिए भेजी जाएगी।”
इस खबर के अनुसार याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वकील आकाश वशिष्ठ ने पीटीआई को बताया, “न्यायाधिकरण ने उनकी ज़्यादातर दलीलें मान ली हैं और दलीलों में दम पाया है, खासकर अंधाधुंध कंक्रीटीकरण से पैदा होने वाले गंभीर पर्यावरणीय खतरों के मामले में।” वशिष्ठ ने कहा, “हमने यह भी दलील दी कि अमेरिका और यूरोप के कई शहर अपनी सड़कों और खुली जगहों पर कंक्रीट हटा रहे हैं, क्योंकि उन्हें एहसास है कि कंक्रीटीकरण एक बड़ी गलती थी, और अब वे इसमें सुधार की राह पर हैं। इससे पैदा होने वाले शहरी ताप द्वीप प्रभाव को बड़े पैमाने पर कंक्रीट हटाने की प्रक्रिया से ही रोका जा सकता है।”
न्यायिक सदस्य सुधीर अग्रवाल और विशेषज्ञ सदस्य अफरोज अहमद की पीठ नोएडा और ग्रेटर नोएडा में सड़क के किनारे और खुले स्थानों पर बड़े पैमाने पर कंक्रीटीकरण के खिलाफ याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
21 मई के एक आदेश में, न्यायाधिकरण ने कहा, “कंक्रीटीकरण से मिट्टी की अभेद्य परत बड़े पैमाने पर बढ़ जाती है, जिससे भूजल पुनर्भरण में कमी आती है या भूजल पुनर्भरण नहीं होता है और अपवाह की बर्बादी भी होती है। यह मिट्टी के पारिस्थितिकी तंत्र और पारिस्थितिक परिसर को नुकसान पहुँचाकर जैव विविधता को भी प्रभावित करता है।” न्यायाधिकरण ने कहा कि कंक्रीटीकरण से ऊष्मा द्वीप बनते हैं, जो ऊष्मा को वापस वायुमंडल में परावर्तित करते हैं, जिससे हानिकारक दीर्घ-तरंग अवसंरचनात्मक विकिरण और जलवायु वार्मिंग होती है।
न्यायाधिकरण ने रेखांकित किया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अप्रैल 2001 और मार्च 2018 में शहरी क्षेत्रों में सड़क, फुटपाथ और सड़क के किनारे निर्माण कार्य के दौरान अत्यधिक कंक्रीटीकरण को रोकने के लिए बुनियादी दिशा-निर्देशों के संबंध में आदेश जारी किए थे।

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