पितृ पक्ष में कैसे करें पिंडदान, यहां जानिए स्टेप बाय स्टेप पूरी विधि मंत्र सहित

धर्म { गहरी खोज } : श्राद्ध के दिन पितरों के निमित खीर, पूड़ी, सब्जी और साथ ही उनकी कोई मनपसंद चीज और एक अन्य सब्जी बनाई जाती है और इस भोजन को गोबर से बने उपले की कोर पर रखकर पितरो को भोग लगाया जाता है और सीधे हाथ से कोर के दाहिनी तरफ पानी छोडा जाता है। इसे ही पिंडदान कहा जाता है। आचार्य इंदु प्रकाश जी से जानिए पिंडदान करने का सही तरीका क्या है।
पिंडदान कैसे किया जाता है?
कुछ शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके पिण्ड बनाए जाते हैं और उसे सपिण्डीकरण कहते हैं। यहां पिण्ड का अर्थ है- शरीर। श्राद्ध में पूर्वज़ों के निमित पिंड बनाकर उनसे अपने आने वाले जीवन की शुभेच्छा की प्रार्थना की जाती है। पिण्डदान करने वाले को उसके पूर्वज़ों के आशीर्वाद से संतति, सम्पति, विद्या तथा हर प्रकार की सुख-समृद्धि मिलती है ।
पिंडदान की विधि
हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों की पहले पीढ़ियों के गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, उन्हें आपस में मिलाकर फिर अलग बांटते हैं। जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की देह में हैं, उन सबकी तृप्ति के लिये यह अनुष्ठान किया जाता है। पिण्डदान दाहिने हाथ में लेकर करना चाहिए और मंत्र के साथ पितृतीर्थ मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड किसी थाली या पत्तल में स्थापित करें….. पितृतीर्थ मुद्रा में दक्षिण दिशा में मुख करके बायां घुटना मोड़कर बैठा जाता है। इस तरह सबसे पहला पिंड देवताओं के निमित निकालें। दूसरा पिंड ऋषियों के निमित, तीसरा दिव्य मानवों के निमित, चौथा दिव्य पितरों के, पांचवां पिंड यम के, छठा मनुष्य-पितरों के नाम, सातवां मृतात्मा के नाम, आठवां पिंड पुत्रदारा रहितों के नाम, नौवां उच्छिन्न कुलवंश वालों के नाम, दसवां पिंड गर्भपात से मर जाने वालों के नाम, ग्यारहवां और बारहवां पिंड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित।
पिंडदान मंत्र
इस तरह से बारह पिंड निकाले जाते हैं और उन पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्रार्थना की जाती है और मन्त्र का जप किया जाता है। मन्त्र है- ऊं पयः पृथ्वियां पय ओषधीय, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम
गरुण पुराण के हवाले से श्री कृष्ण का वचन उद्घृत है –
कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति।
आयुः पुत्रान्यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।।
देवताभ्यः पितृणां हिपूर्वमाप्यायनं शुभम्।।
अर्थात समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता। पितरों की पूजा से मनुष्य आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, स्वर्ग, पुष्टि, बल, श्री, सुख-सौभाग्य और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।