राष्ट्रपति को विधेयक भेजे जाने के मामले में केवल संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करेंगे : न्यायालय

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नयी दिल्ली{ गहरी खोज }: उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि वह विधेयकों को मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेजे जाने (प्रेसीडेंट रेफरेंस) पर विचार करते समय केवल संविधान की व्याख्या करेगा कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों से निपटने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकता है। भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने यह टिप्पणी उस समय की जब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यदि इस संदर्भ का विरोध करने वाले पक्षों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक सिंघवी अन्य के अलावा आंध्र प्रदेश से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों के उदाहरणों का हवाला देंगे, तो उन्हें जवाब दाखिल करने की आवश्यकता है क्योंकि उन्होंने उन पहलुओं पर दलील नहीं दी है।
पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल हैं।
मेहता ने पीठ से कहा, ‘‘अगर वे (तमिलनाडु और केरल सरकारें) आंध्र प्रदेश आदि के उदाहरणों पर भरोसा करने जा रही हैं… तो हम चाहेंगे कि इस पर जवाब दाखिल हो। क्योंकि हमें यह दिखाना होगा कि संविधान के साथ उसकी स्थापना से ही किस तरह खिलवाड़ किया गया…।’’ सीजेआई गवई ने मेहता से कहा, ‘‘हम अलग-अलग मामलों पर गौर नहीं कर रहे हैं, चाहे वह आंध्र प्रदेश हो, तेलंगाना हो या कर्नाटक, लेकिन हम केवल संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करेंगे। और कुछ नहीं।’’ सिंघवी ने राष्ट्रपति संदर्भ पर सुनवाई के छठे दिन अपनी दलीलें पुनः शुरू कीं और संक्षेप में बताया कि विधेयकों के ‘‘विफल’’ होने का क्या अर्थ है।
सिंघवी ने किसी विधेयक के ‘‘असफल’’ होने के विभिन्न परिदृश्यों का हवाला देते हुए कहा कि एक उदाहरण में, जब संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए विधेयक लौटाए जाने के बाद राज्यपाल द्वारा इस पर पुनर्विचार के लिए कहा गया हो, तो विधानसभा ‘‘उसे वापस भेजना न चाहे, उसे पारित करना न चाहे, अपनी नीति में बदलाव कर दे तो भी विधेयक स्वाभाविक रूप से विफल हो जाता है।’’ सीजेआई ने सिंघवी से पूछा कि यदि राज्यपाल विधेयक को रोक लेते हैं और उसे विधानसभा में वापस नहीं भेजते तो क्या होगा।
इस पर सिंघवी ने कहा, ‘‘अगर ऐसा होता है, तो फिर विधानसभा को वापस भेजने की यह सारी प्रक्रिया नहीं होगी। पहले के फैसलों में कहा गया था कि जब तक अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान का पालन नहीं किया जाता (जिसके तहत विधेयक को विधानसभा में वापस भेजना आवश्यक है) तब तक विधेयक पारित नहीं हो सकता।’’
न्यायालय ने 28 अगस्त को कहा था कि विधेयकों के भविष्य पर फैसला करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 200 में इस्तेमाल वाक्यांश ‘यथाशीघ्र’ से कोई व्यावहारिक उद्देश्य पूरा नहीं होगा, यदि राज्यपालों को ‘अनंतकाल’ तक मंजूरी रोककर रखने की अनुमति है।
न्यायालय ने यह टिप्पणी तब की, जब केंद्र ने कहा कि राज्य सरकारें विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को लेकर राष्ट्रपति और राज्यपाल की कार्रवाई के खिलाफ मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को लेकर शीर्ष अदालत में रिट याचिका दायर नहीं कर सकतीं।
अनुच्छेद 200 राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल को शक्तियां प्रदान करता है, जिसके तहत वह विधेयक पर अपनी सहमति दे सकते हैं, अपनी सहमति रोक सकते हैं, विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं या विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख सकते हैं।
अनुच्छेद 200 के एक प्रावधान में कहा गया है कि राज्यपाल, विधेयक को स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किए जाने के बाद यथाशीघ्र, विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है, सदन में पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं और विधानसभा द्वारा पुनर्विचार करने तथा उसे वापस भेजने के बाद वह अपनी सहमति नहीं रोकेंगे।
शीर्ष अदालत ने 26 अगस्त को कहा था कि यदि राज्यपाल विधेयकों को मंजूरी देने में अनिश्चितकाल तक देरी करते हैं तो क्या अदालत को शक्तिहीन होकर बैठना चाहिए और क्या संवैधानिक पदाधिकारी की विधेयक को रोकने की स्वतंत्र शक्ति का अर्थ यह होगा कि धन विधेयक को भी रोका जा सकता है।
न्यायालय ने यह सवाल तब उठाया जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा शासित कुछ राज्यों ने विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपालों और राष्ट्रपति की स्वायत्तता का बचाव करते हुए कहा कि ‘‘किसी कानून को मंजूरी न्यायालय द्वारा नहीं दी जा सकती।’’ राज्य सरकारों ने यह भी तर्क दिया कि न्यायपालिका हर मर्ज की दवा नहीं हो सकती।
मई में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानना चाहा था कि क्या न्यायिक आदेश राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार के लिए राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार का इस्तेमाल किए जाने के वास्ते समयसीमा निर्धारित कर सकते हैं।

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