सोलह साल के बच्चों से सेक्स की बातें करना ठीक नहीं: प्रियंक कानूनगो

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नई दिल्ली{ गहरी खोज }: देश में सहमति से सेक्स की कानूनी उम्र माैजूदा 18 साल से घटाने की मांग काे लेकर पर चल रही बहस के बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य प्रियंक कानूनगो ने गुरूवार को कहा कि 16 साल के बच्चों से यौन संबंधों की बात करना गलत है क्याेंकि इससे उनके दिमागी विकास और सोचने-समझने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है।
कानूनगाे ने यहां इंडिया हैबिटेट सेंटर में “सहमति की उम्र घटाने” को लेकर आयाेजित एक चर्चा के दौरान बोल रहे थे। इस कार्यक्रम में डॉक्टरों, पत्रकारों और सामाजिक संगठनों के लोगों ने हिस्सा लिया।
कार्यक्रम में कानूनगो ने कहा कि भले ही दुनिया के कुछ देशों में सहमति की उम्र 16 साल है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भारत में भी इसे उसी तरह लागू कर दिया जाए। भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक स्थिति बाकी देशों से बहुत अलग है, और यहां इस उम्र को कम करना बच्चों के हित में नहीं होगा।
उन्होंने कहा कि जब 18 साल से कम उम्र में शादी नहीं करने दी जाती, तो फिर 16 साल की उम्र में यौन संबंध की इजाजत कैसे दी जा सकती है? उन्होंने अदालत के फैसलों पर भी सवाल उठाए और कहा कि कहीं 16 साल की शादी को सही कहा जा रहा है, तो कहीं गलत। यह विरोधाभास ठीक नहीं है।
कानूनगो ने किशोरावस्था की जटिलताओं पर बात करते हुए कहा कि अगर कोई 14 साल का बच्चा ब्रेकअप जैसे भावनात्मक झटके से गुजरेगा तो इसका उसकी मानसिक और शारीरिक सेहत पर गंभीर असर पड़ेगा। ऐसे में इन बच्चों को शादी या सेक्स जैसी जिम्मेदारियों में डालना सही नहीं है।
उन्होंने कहा कि यह मुद्दा सिर्फ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नहीं है, बल्कि बच्चों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास से जुड़ा हुआ है। सोलह-सत्रह साल की बच्चियों को मां बनने पर मजबूर करना समाज के लिए एक खतरनाक स्थिति होगी। इससे न केवल उनकी सेहत पर खतरा बढ़ेगा, बल्कि उनकी पढ़ाई और भविष्य के मौके भी बर्बाद हो जाएंगे।
कानूनगो ने कहा कि मुस्लिम लड़कियों की स्थिति पर भी ध्यान देना जरूरी है, क्योंकि कोर्ट भी उन्हें इस उम्र में मां बनने से नहीं रोक पा रहा है। हर धर्म और वर्ग की बच्चियों को समान सुरक्षा मिलनी चाहिए। यह सिर्फ कानूनी मामला नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय से जुड़ा सवाल है।
चर्चा के दौरान डॉक्टरों ने बताया कि कम उम्र में गर्भधारण और प्रसव से बच्चियों की सेहत पर कितने बड़े खतरे मंडराते हैं। कई बार तो बच्चियों की जान पर भी बन आती है। वहीं, मीडिया से जुड़े लोगों और सामाजिक संगठनों ने कहा कि सहमति की उम्र कम करने का मुद्दा सिर्फ कानून तक सीमित नहीं है। यह बच्चों की सुरक्षा, मानसिक स्वास्थ्य और शिक्षा से गहराई से जुड़ा हुआ है।
उल्लेखनीय है कि इस बहस की जड़ में उच्चतम न्यायालय में चल रही एक बहस है, जिसमें वरिष्ठ अधिवक्ता और न्यायमित्र इंदिरा जयसिंह ने दलील दी है कि 16 से 18 साल के बच्चों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंधों को अपराध नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पॉक्सो एक्ट के तहत 18 साल की तय उम्र में बदलाव किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे बच्चों को अनावश्यक रूप से अपराधी बना दिया जाता है।
साल 2022 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने सबसे पहले यह मुद्दा उठाया था। अदालत ने विधि आयोग से कहा था कि वो पॉक्सो कानून के तहत तय की गई सहमति की उम्र पर दोबारा विचार करे ताकि जो वास्तविकता है, उसे कानून में जगह मिल सके। अदालत ने कुछ मामलों का उदाहरण देते हुए कहा था कि कई बार 16 साल से ज्यादा उम्र की लड़कियां अपने प्रेमी के साथ भाग जाती हैं और याैन संबंध बनाती हैं, लेकिन बाद में उनके परिवार की शिकायत पर लड़के पर बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आरोप लगा दिए जाते हैं।
हालांकि बाद में भारत के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की कि सहमति की उम्र घटाई न जाए। लेकिन आयोग ने यह सुझाव जरूर दिया कि 16 से 18 साल की उम्र के बच्चों के आपसी रिश्तों के मामलों में अदालतें ‘न्यायिक विवेक’ यानी केस के हिसाब से फैसला लेने की आजादी रखें। हालांकि इस सुझाव को अभी तक कानून का रूप नहीं मिला है, लेकिन देशभर की कई अदालतें इस विचार को मानते हुए फैसले सुना चुकी हैं।
अप्रैल 2025 में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक मामले में पहले सुनाए गए बरी करने के फैसले को पलटते हुए 23 साल के युवक को 10 साल की सजा सुनाई। उस मामले में युवक 17 साल की लड़की के साथ रिश्ते में था और वह उसे लेकर घर से भाग गया था क्योंकि लड़की के परिवार ने उसकी शादी किसी और से तय कर दी थी।

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