130वां संविधान संशोधन

संपादकीय { गहरी खोज }: केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा लोकसभा में पेश किए गए विधेयकों का मूल भाग यह है कि यदि किसी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या केन्द्र और राज्य के मंत्री की गिरफ्तारी ऐसे मामले में होती है, जिसमें पांच वर्ष या उससे अधिक की सजा का प्रावधान हो और उक्त नेता को 30 दिनों के भीतर जमानत नहीं मिलती है तो 31वें दिन उसका पद स्वत: चला जाएगा।
विपक्ष को आशंका है कि इस कानून का दुरुपयोग विरोधी दलों के नेताओं के प्रति किया जाएगा। लेकिन कानून के जानकारों का दो टूक प्रश्न है कि क्या अब तक कानूनी प्रावधान नहीं होने का दुरुपयोग राजनेताओं ने नहीं किया? दरअसल, कानूनी प्रावधान नहीं होने के बावजूद दशकों से यह व्यवस्था नैतिकता के आधार पर चल रही थी। जैसे चारा घोटालों के आरोप में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव घिरे तो गिरफ्तारी से पहले कुर्सी छोड़ दी थी। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पिछले कार्यकाल में इस्तीफा इसी कारण से दिया था, क्योंकि उनकी गिरफ्तारी होने जा रही थी। आय से अधिक संपत्ति के मामले में जेल जाने से पहले एआईडीएमके की नेता जयललिता ने मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया था। इन विधेयकों को विपक्ष ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संकट करार दिया। वहीं कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने इन विधेयकों को संविधान का काला अध्याय बताया है। प्रियंका गांधी ने इसे कठोर और अन्यायपूर्ण बताते हुए कहा कि यह संविधान की भावना के विरुद्ध होगा।
जबकि कांग्रेस के ही नेता शशि थरूर ने कहा कि इस में कुछ भी गलत नहीं दिखता। गंभीर अपराधों में गिरफ्तारी और 30 दिनों तक हिरासत में रहने पर मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को पद से हटाने संबंधी विधेयकों को लोकसभा में पेश करने के कुछ देर बाद शाह ने एक के बाद एक कई सोशल मीडिया पोस्ट कर विपक्ष पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि देश को वह समय भी याद है, जब इसी सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन संख्या-39 से पीएम को ऐसा विशेषाधिकार दिया कि प्रधानमंत्री के विरुद्ध कोई भी कानूनी कार्यवाही नहीं हो सकती थी। विधेयक का उद्देश्य सार्वजनिक जीवन में गिरते नैतिक स्तर को ऊपर उठाना और राजनीति में शुचिता लाना है। गृह मंत्री ने कहा कि विधेयक में एक प्रावधान यह भी है कि आरोपी राजनेता गिरफ्तारी के 30 दिन के भीतर अदालत से जमानत मांग सकता है। उन्होंने कहा कि यदि वे 30 दिनों के भीतर जमानत प्राप्त करने में विफल रहते हैं, तो 31वें दिन प्रधानमंत्री हों या राज्यों के मुख्यमंत्री उन्हें अपना पद छोड़ना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो स्वतः ही वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए कानूनी रूप से अयोग्य हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि यदि ऐसे नेता को कानूनी प्रक्रिया के बाद जमानत मिल जाती है, तो वे अपने पद पर फिर से आसीन हो सकते हैं। शाह ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि भविष्य में ऐसे राजनीतिक व्यक्ति भी आएंगे, जो गिरफ्तार होने से पहले नैतिक मूल्यों पर इस्तीफा नहीं देंगे। देश में ऐसी आश्चर्यजनक स्थिति उत्पन्न हुई कि सीएम या मंत्री बिना इस्तीफा दिए जेल से अनैतिक रूप से सरकार चलाते रहे। ऐसे नेताओं को ही पद से हटाने के लिए इन विधेयकों में प्रावधान किए गए हैं।
संविधान सभा में प्रारूपण समिति के सभापति डा. अंबेडकर और संविधान सभा के अध्यक्ष, डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 25 तथा 26 नवंबर, 1949 को भाषण देते हुए चेतावनी तथा सावधानी के शब्द कहे। डा. अंबेडकर ने कहा कि मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा। संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है। राज्य के उन अंगों का संचालन लोगों पर तथा उनके द्वारा अपनी आकांक्षाओं तथा अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाए जाने वाले राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है। कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा उनके राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? जातियों तथा संप्रदायों के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा, विभिन्न तथा परस्पर विरोधी विचारधारा रखने वाले राजनीतिक दल बन जाएंगे। क्या भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मैं नहीं जानता। लेकिन यह बात निश्चित है कि यदि राजनीतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर खतरे में पड़ जाएगी और संभवतया हमेशा के लिए खत्म हो जाए। हम सभी को इस संभाव्य घटना का दृढ़ निश्चय के साथ प्रतिकार करना चाहिए। हमें अपनी आजादी की खून के आखिरी कतरे के साथ रक्षा करने का संकल्प करना चाहिए।
डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने समापन भाषण में विचार व्यक्त किया कि संविधान सभा सब मिलाकर एक अच्छा संविधान बनाने में सफल रही है और उन्हें विश्वास है कि यह देश की जरूरतों को अच्छी तरह से पूरा करेगा किन्तु उन्होंने इसके साथ यह भी कहा यदि लोग, जो चुनकर आएंगे, योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोतम बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार, एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों के द्वारा होता है, जो इस पर नियंत्रण करते हैं तथा इसे चलाते हैं और भारत को इस समय ऐसे लोगों की जरूरत है, जो ईमानदार हों तथा जो देश के हित को सर्वोपरि रखें। हमारे जीनव में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है। हममें सांप्रदायिक अंतर हैं, जातिगत अंतर हैं, भाषागत अंतर हैं, प्रांतीय अंतर हैं। इसके लिए दृढ़ चरित्र वाले लोगों की, दूरदर्शी लोगों की, ऐसे लोगों की जरूरत है, जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें और उन पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ सकें जो इन अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं। हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि देश में ऐसे लोग प्रचुर संख्या में सामने आएंगे।
गृहमंत्री अमित शाह द्वारा पेश 130वें संशोधन बिल तीनों विधेयकों को लेकर संसद में हंगामा करने वालों को डा. अम्बेडकर व डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रकट उपरोक्त विचारों को मद्देनजर रखते हुए अपने व्यवहार को लेकर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। यह विधेयक जब कानून बन जाएंगे तो पक्ष व विपक्ष दोनों पर एक समान ही लागू होंगे फिर शंकाएं और हंगामा क्यों? आज का विपक्ष कल सत्ता पक्ष हो सकता है। जिस तरह आज का सत्ता पक्ष अतीत में विपक्ष था। प्रश्न तो सार्वजनिक जीवन में आ रहे नैतिक पतन को रोकने का है। बात गंभीर मामलों में लिप्त व्यक्ति की है। सरकार तो बहुमत दल की ही रहेगी। फिर डर किस बात का अगर अतीत में राजनीतिज्ञों ने नैतिक के उच्च मापदंडों को बनाए रखा होता तो शायद विधेयक लाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। दूसरा पक्ष यह भी है कि देश में पक्ष और विपक्ष के संबंध हर दिन कटु होते चले जा रहे हैं। जहां पहले ही यह आरोप सत्ता पक्ष पर लगाए जा रहे हैं कि विपक्षी दलों के नेताओं पर आरोप लगा कर मुकदमें दर्ज हो रहे हैं, धीमी न्यायप्रक्रिया समस्या को और बढ़ा देती है। ऐसे में अगर विधेयक कानून बन जाते हैं तब टकराव बढ़ने के साथ-साथ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था ही खतरे में न पड़ जाए इस स्थिति से बचने के लिए भी माननीयों को गंभीर विचार करने के बाद ही आगे बढ़ना चाहिए।