प्रधान न्यायाधीश की सलाह

संपादकीय { गहरी खोज }: हैदराबाद में नालसार विधि विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह पर बोलते हुए देश के उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई ने छात्रों को सलाह देते हुए कहा कि वे छात्रवृति पर विदेश जा कर अध्ययन करें और परिवार पर वित्तीय बोझ नहीं डालें। प्रधान न्यायाधीश ने इस संबंध में अमेरिका के वरिष्ठ संघीय जिला न्यायाधीश जेड एस राकाफ का हवाला दिया। ‘विदेश में मास्टर डिग्री हासिल करने के दबाव’ पर न्यायमूति गवई ने कहा कि सिर्फ एक विदेशी डिग्री आपकी योग्यता पर मुहर नहीं है। यह फैसला बिना सोचे-समझे या अपने साथियों के दबाव में न लें। इसके बाद क्या होगा? बरसों का कर्ज. चिंता, आर्थिक बोझ तले करियर के फैसले। उन्होंने कुछ युवा स्नातकों या वकीलों का उदाहरण दिया, जो विदेश में शिक्षा के लिए 50-70 लाख रूपए तक ऋण लेते हैं। वास्तव में, 50-70 लाख रूपए जैसी बड़ी राशि का एक छोटा सा हिस्सा स्वतंत्र प्रैक्टिस शुरू करने या कार्यालय कक्ष बनाने के लिए निवेश के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि युवा वकील जीवन में, जब वे स्थिर हो जाएं तो पढ़ाई के लिए विदेश जा सकते हैं। न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि विदेश जाने की बढ़ती प्रवृति एक संरचनात्मक मुद्दे को भी दर्शाती है, जो हमारे देश में स्नातकोत्तर कानूनी शिक्षा और अनुसंधान की स्थिति में विश्वास की कमी को दर्शाती है।
इसी के साथ-साथ देश की न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए प्रधान न्यायाधीश गवई ने कहा कि न्याय व्यवस्था अनोखी चुनौतियों का सामना कर रही है और इसमें सुधार की सख्त जरूरत है। उन्होंने कहा कि मुकदमों में देरी कभी-कभी दशकों तक चल सकती है। हमने एसे मामले देखे हैं जहां विचाराधीन कैदी के रूप में कई वर्ष जेल में बिताने के बाद कोई व्यक्ति निर्दोष पाया गया है। हमारी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं हमें उन समस्याओं का समाधान करने में मदद कर सकती हैं जिनका हम सामना कर रहे हैं।
देश के उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई ने देश की न्याय व्यवस्था को लेकर जो कहा है वह ऐसा सत्य है जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता। हमारे देश में वर्षों मुकद्दमें चलते रहते हैं और इस कारण आरोपी को कई बार इंसाफ इतनी देरी से मिलता है कि वह न मिले जैसी वाली स्थिति होती है। तारीख पर तारीख वाली स्थिति को बदलने के लिए मोदी सरकार ने न्याय संहिता लाकर सुधार करने का प्रयास तो किया है लेकिन धरातल स्तर पर अभी बहुत कुछ करने वाला है। छात्रों में विदेश में जाकर पढ़ने का जो चलन शुरु हुआ है उससे छात्रों के परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। बच्चे की पढाई व उज्जवल भविष्य के लिए मां-बाप अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। प्रधान न्यायाधीश की यह सलाह कि विदेश जाना है तो छात्रवृत्ति लेकर जाएं ताकि परिवार पर आर्थिक दबाव न पड़े। दूसरा विदेशी डिग्री कोई सफलता की गारंटी नहीं विशेषतया वकालत में तो नहीं। व्यक्ति के सूझवान और व्यवहारिक होने के साथ-साथ अपने काम के प्रति गंभीर वह ईमानदार होना बहुत महत्व रखता है। 50-70 लाख रुपए खर्च कर विदेश में पढ़ाई करने से बेहतर है अपना कार्यालय स्थापित कर यहां वकालत शुरु करें । तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि जिस व्यक्ति पर विदेश में पढ़े होने का ठप्पा लग जाता है समाज में उसको अधिक महत्व मिलना शुरु हो जाता है। बस इसी कारण विदेशों में पढ़ने की भेड़चाल जारी है। प्रधान न्यायाधीश की उपरोक्त दी गई दोनों सलाहों को समाज और सरकार को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।