सुप्रीम कोर्ट ने साइबर अपराध विरोधी तमिलनाडु के रुख की तारीफ की

नयी दिल्ली{ गहरी खोज }: उच्चतम न्यायालय ने साइबर अपराध से निपटने के लिए निवारक निरोध कानूनों को लागू करने के कदम को डिजिटल धोखाधड़ी से निपटने में एक ‘स्वागत योग्य प्रवृत्ति’ बताते हुए तमिलनाडु की तारीफ की।
न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने साइबर अपराध के आरोपी अभिजीत सिंह की निवारक निरोध को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की।
तमिलनाडु खतरनाक गतिविधि रोकथाम अधिनियम, 1982 के तहत सिंह की हिरासत को पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति मेहता ने टिप्पणी करते हुए कहा,“यह राज्य की ओर से आने वाली एक अच्छी प्रवृत्ति है कि साइबर अपराधियों के खिलाफ निवारक निरोध कानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह एक बहुत ही स्वागत योग्य दृष्टिकोण है। सामान्य आपराधिक कानून इन अपराधियों के खिलाफ सफल साबित नहीं हो रहे हैं।”
याचिकाकर्ता सिंह के पिता ने तर्क दिया कि निरोध आदेश असंवैधानिक था और संविधान के अनुच्छेद 22 (5) का उल्लंघन करता है। उन्होंने तर्क दिया कि कथित साइबर धोखाधड़ी एक बार की घटना थी और इससे सार्वजनिक व्यवस्था में कोई बाधा नहीं आई।
उन्होंने यह भी दावा किया कि सलाहकार बोर्ड की सुनवाई के लिए नोटिस सुनवाई की तारीख के बहुत करीब दिया गया था, जिससे हिरासत में लिए गए व्यक्ति को प्रभावी ढंग से अपना पक्ष रखने से रोका गया।
नयी दिल्ली में रहने वाले पंजाब के मूल निवासी सिंह को 25 जुलाई, 2024 को थेनी जिले के साइबर अपराध पुलिस थाने में 84.5 लाख रुपये की साइबर धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज होने के बाद गिरफ्तार किया गया था।
शिकायतकर्ता भानुमति ने आरोप लगाया कि मेसर्स क्रिएटिव क्राफ्ट नाम से संचालित सिंह के खाते में 12.14 लाख रुपये ट्रांसफर किए गए थे।
जांच से पता चला कि सिंह ने चार कंपनियां बनाई थीं और धोखाधड़ी वाले फंड को रूट करने के लिए अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर कई बैंक खाते खोले थे।
जिला कलेक्टर ने 23 अगस्त, 2024 को हिरासत आदेश जारी किया, जिसे बाद में 25 सितंबर को सलाहकार बोर्ड द्वारा और 09 नवंबर, 2024 को राज्य सरकार द्वारा 12 महीने की अवधि के लिए पुष्टि की गई।
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि सिंह का कोई पिछला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था और इस बात पर जोर दिया कि अधिकतम अवधि के लिए निवारक हिरासत अनुचित थी।
इस पर न्यायमूर्ति मेहता ने कहा, “यह राज्य का विवेक है। हिरासत की अवधि रिट क्षेत्राधिकार में न्यायालय द्वारा तय नहीं की जा सकती। यदि हिरासत का कोई आधार नहीं है, तो आदेश को ही खत्म करना होगा, अवधि को स्वतंत्र रूप से कम नहीं किया जा सकता है।”
अदालत ने राज्य द्वारा दायर जवाबी हलफनामे पर गौर किया और रजिस्ट्री को इसे रिकॉर्ड पर अपलोड करने का निर्देश दिया।
इस मामले की अगली सुनवाई बुधवार 25 जून, 2025 के लिए मुकर्रर की गई है।
इससे पहले, मद्रास उच्च न्यायालय ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि हिरासत आदेश पर्याप्त दस्तावेज के आधार पर दिया गया, प्रक्रियाओं का विधिवत पालन किया गया था और हस्तक्षेप करने के लिए कोई कानूनी कमी नहीं थी।