मुगलों से बचाने के लिए इस टापू पर छिपाए गए थे भगवान जगन्नाथ, निकलती है अलग रथ यात्रा

धर्म { गहरी खोज } :कांकण सिखरी, एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील चिल्का के बीचोंबीच स्थित एक शांत और पवित्र द्वीप है। यह स्थान ओडिशा के खोरधा जिले के बालूगांव तहसील के अंतर्गत नैरी गांव के पास स्थित है। यहां हर साल भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा की रथ यात्रा एक अलग रूप में मनाई जाती है, यह जमीन पर नहीं बल्कि पानी में होती है।
12वीं शताब्दी में विदेशी आक्रमण
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा आमतौर पर पुरी समेत दुनिया भर में सड़कों पर खींचे जाने वाले रथों से जुड़ी होती है, पर कांकण सिखरी में यह परंपरा चिलिका झील की लहरों पर भक्तों द्वारा खींचा जाता है। यह जल-रथ यात्रा हर साल हजारों श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचती है, जो दूर-दूर से इस अनोखी परंपरा को देखने आते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब 12वीं शताब्दी के पुरी श्रीमंदिर पर विदेशी आक्रमण हुआ, तो भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन की मूर्तियों को कई बार सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया। इनमें से एक प्रमुख स्थान कांकण सिखरी था, जो उस समय कांकण कूद के नाम से जाना जाता था।
मुगलों की वजह से छिपाई गई मूर्ति
इतिहास में झांके तो साल 1731 में, जब मुगल सेनापति ताकी खान ने बार-बार पुरी के भगवान जगन्नाथ के श्रीमंदिर पर हमला किया, तब तत्कालीन गजपति रामचंद्र देव के शासनकाल में मूर्तियों को पुरी से चिलिका झील के आसपास के घने जंगलों और द्वीपों में छुपाया गया। कांकण सिखरी उन सुरक्षित स्थानों में से एक था, जहां भगवानों को कुछ महीनों तक छिपाकर पूजा गया। फिर मूर्तियों को नैरी गांव के पास स्थित इस द्वीप पर रखे जाने के दौरान, सेवक पास की जलधारा ‘जमुना निर्झरा’ से जल लाकर भगवान को चढ़ाते थे। साथ ही, द्वीप पर स्थानीय लोग ककोड़ा जिसे स्थानीय भाषा में कांकण कहा जाता है, उसकी खेती करते थे, और उसे भगवान को नैवेद्य के रूप में अर्पित किया जाता था। यही कारण है कि इस स्थान का नाम कांकण सिखरी पड़ा।
तब से निकलती है नाव पर रथ यात्रा
चिलिका झील के बीचों बीच एक टापू पर भगवान जगन्नाथ के मंदिर होने के कारण यहां नावों से रथ यात्रा होती है। हर साल रथ यात्रा के दिन, भगवानों को मंदिर से बाहर लाने की पारंपरिक प्रक्रिया ‘पहांडी’ के तहत शोभायात्रा में बाहर लाया जाता है। इसके बाद उन्हें एक विशेष रूप से सजाई गई नाव पर बैठाया जाता है, जो रथ का आकार लिए होती है। यह रथ-नाव फिर मंदिर के चारों ओर सात चक्कर लगाती है। इसके बाद उसे खींचते हुए गुंडिचा मंदिर तक ले जाया जाता है, जो गांव के आखरी छोर पर स्थित है। 9 दिनों तक भगवान वहीं विश्राम करते हैं और फिर बहुड़ा यात्रा के दिन वापसी में फिर से टापू के चारों ओर 7 चक्कर लगाकर भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा को वापस मंदिर के अंदर विराजमान कर दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में भक्त अपने-अपने नावों को रथ-नाव से रस्सियों से बांधते हैं और मिलकर उसे खींचते हैं। शंख, मंजीरे, ढोल, तुरही और ‘जय जगन्नाथ’ के नारों से चिल्का झील का माहौल भक्तिमय हो उठता है।
कहां कहां छिपाए गए थे भगवान?
मुगल आक्रांताओं के आक्रमण के दौरान चिलिका झील के तीन प्रमुख स्थानों ,कंकणा सिखारी, गुरुबाई और चकानासी में भगवान की मूर्तियां छिपाई गई थीं। इसके अलावा मरादा, खोरधा गढ़, चिकिटी, टिकाबली, बंकुड़ा कूद, आठगढ़ पटना और नैरी जैसे कई स्थानों ने भी मूर्तियों को छिपाए गए थे। कंकणा कूद , जो आज कांकण सिखरी के रूप में जाना जाता है, उस समय घने जंगलों और वन्य जीवों से भरा हुआ था। चार महीनों तक भगवान की मूर्तियां यहां रहीं और फिर उन्हें नैरी गांव के डोलमंडप साही में स्थानांतरित किया गया।