दिल्ली हाईकोर्ट ने बलात्कार पीड़ितों के गर्भपात के लिए दिशा-निर्देश जारी किए

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नई दिल्ली{ गहरी खोज }: दिल्ली उच्च न्यायालय ने यौन उत्पीड़न की पीड़िताओं से जुड़े मामलों में गर्भावस्था की चिकित्सा समाप्ति (एमटीपी) को समय पर और संवेदनशील तरीके से निपटाने के लिए कई निर्देश जारी किए हैं। न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने आदेश दिया कि बलात्कार या यौन उत्पीड़न की पीड़िता के गर्भवती पाए जाने के सभी मामलों में बिना किसी देरी के व्यापक चिकित्सा जांच कराई जानी चाहिए। पीड़िता की पहचान करना और यह सुनिश्चित करना जांच अधिकारी (आईओ) की जिम्मेदारी होगी कि जब उसे मेडिकल बोर्ड के समक्ष पेश किया जाए तो आवश्यक दस्तावेज, केस फाइल आदि साथ में रखे जाएं।
न्यायाधीश ने कहा, “जहां यौन उत्पीड़न (बड़े या छोटे) की पीड़िता जांच अधिकारी के साथ होती है या उसे न्यायालय या बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) के निर्देश के अनुसार पेश किया जाता है, वहां अल्ट्रासाउंड या किसी प्रासंगिक/आवश्यक निदान प्रक्रिया के लिए अस्पताल और संबंधित डॉक्टर द्वारा पीड़िता का पहचान प्रमाण/पहचान पत्र मांगे जाने पर जोर नहीं दिया जाएगा। ऐसे मामलों में आईओ द्वारा पहचान ही पर्याप्त होगी।” न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बलात्कार पीड़िताओं के मामले में, जहां गर्भावधि अवधि 24 सप्ताह से अधिक है, न्यायालय से किसी विशिष्ट निर्देश की प्रतीक्षा किए बिना तत्काल मेडिकल बोर्ड का गठन किया जाएगा।
पीठ ने आदेश दिया कि “बोर्ड आवश्यक मेडिकल जांच करेगा और यथाशीघ्र एक उचित रिपोर्ट तैयार करेगा तथा उसे उचित प्राधिकारियों के समक्ष रखेगा, ताकि जब पीड़िता इस न्यायालय से गर्भावस्था के मेडिकल समापन के लिए निर्देश पारित करने के लिए संपर्क करे, तो बिना देरी के आदेश पारित किया जा सके।” न्यायालय ने कहा कि सभी मामलों में जहां बलात्कार पीड़िता के लिए एमटीपी किया जाता है, भ्रूण को उचित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए, ताकि इसे भविष्य में डीएनए विश्लेषण या अन्य फोरेंसिक उद्देश्यों के लिए भेजा जा सके।
न्यायमूर्ति शर्मा ने 17 वर्षीय बलात्कार पीड़िता की याचिका पर विचार करते हुए ये दिशा-निर्देश तैयार किए, जिसे मेडिकल जांच और एमटीपी के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) ले जाया गया था। अस्पताल ने शुरू में उसका अल्ट्रासाउंड करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसके पास कोई पहचान पत्र नहीं था, भले ही पुलिस उसके साथ थी। जब 13 दिनों की देरी के बाद अल्ट्रासाउंड किया गया, तो पाया गया कि वह 25 सप्ताह से अधिक गर्भवती थी। मेडिकल बोर्ड ने उसकी जांच नहीं की क्योंकि डॉक्टर ने कहा कि चूंकि गर्भ वैधानिक सीमा से अधिक हो चुका है, इसलिए अदालत के आदेश की आवश्यकता होगी। कोर्ट के आदेश पर मेडिकल बोर्ड ने उसकी जांच की और पाया कि वह केवल 24 सप्ताह की गर्भवती थी, और अदालत के आदेश की कोई आवश्यकता नहीं थी। बेंच ने 29 मई को अपने आदेश में कहा कि इस मामले में एम्स का आचरण परेशान करने वाला था।

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