बोझ नहीं, पंख दीजिए बच्चों को

संपादकीय { गहरी खोज }: मध्यप्रदेश माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा घोषित 10वीं और 12वीं के परीक्षा परिणामों ने एक बार फिर उस पुरानी और कटु सच्चाई को उजागर कर दिया है, जिससे हम सभी परिचित हैं, किंतु फिर भी आंख मूंदे रहते हैं और वह है बच्चों को प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में झोंकने की हमारी प्रवृत्ति।इस बार 12वीं की परीक्षा में सतना की प्रियल द्विवेदी ने प्रदेश में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है। उसने 500 में से 492 अंक अर्जित कर यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा न तो संसाधनों की मोहताज है, न ही किसी विशेष शहर या वर्ग की बपौती। इंदौर की वैदेही मंडलोई और किंजल किंगरानी जैसी छात्राओं ने भी उल्लेखनीय प्रदर्शन किया है, लेकिन इंदौर जैसे शैक्षणिक गढ़ से मात्र दो नामों का टॉप टेन में आना इस बात का संकेत है कि हम शायद बच्चों की क्षमता और स्वाभाविक विकास को दबाकर केवल अंक-प्राप्ति को ही सफलता का पर्याय मान बैठे हैं।यह विषय केवल अंकतालिका तक सीमित नहीं है। यह बच्चों के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य से भी जुड़ा है। बाल मनोविज्ञान कहता है कि हर बच्चा अपनी विशिष्टता के साथ आता है। जाहिर है उसकी जिज्ञासा, रुचियां, क्षमता और रचनात्मकता उसे अद्वितीय बनाती हैं। किंतु जब माता-पिता अपने अधूरे सपनों की गठरी बच्चों की पीठ पर लाद देते हैं, तो यह बोझ पंखों की जगह हथकडिय़ां बन जाता है। वे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक अधिकारी बनाने की होड़ में यह भूल जाते हैं कि बच्चे पहले मनुष्य हैं, संवेदनशील, सोचने और अनुभव करने वाले ना कि रोबोट ! बहरहाल,कई मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि जब बच्चों की आत्म-अभिव्यक्ति को दबाया जाता है और उन्हें केवल अपेक्षाओं की कसौटी पर तौला जाता है, तो वे अवसाद, आत्मग्लानि और कभी-कभी आत्मघात की ओर भी प्रवृत्त हो जाते हैं। ‘असफलता’ तब उन्हें केवल अंक में पिछडऩे की नहीं, अस्तित्व में पिछडऩे की पीड़ा देने लगती है। यह परिस्थिति समाज के लिए कहीं अधिक घातक है, जितनी हम मानते हैं।बहरहाल,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हाल ही के ‘मन की बात’ कार्यक्रम में इस विषय को गंभीरता से उठाया। उन्होंने कहा कि परीक्षा को तनाव नहीं, उत्सव की तरह देखा जाना चाहिए। अभिभावकों से यह भी अपील की गई कि वे तुलना के स्थान पर संवाद का वातावरण बनाएं। यह केवल एक नैतिक आग्रह नहीं, बल्कि गहरे मनोवैज्ञानिक समझ का प्रतीक है। बाल मनोविज्ञान के विशेषज्ञ एक मत से मानते हैं कि जहां बच्चों को उडऩे का अवसर नहीं दिया गया, वहां उनके जीवन में दरारें पड़ीं।
मुख्यमंत्री डॉ। मोहन यादव का यह वक्तव्य निश्चित ही सराहनीय है कि असफल विद्यार्थियों को पुन: परीक्षा का अवसर मिलेगा।यह नई शिक्षा नीति की दूरदर्शी सोच को दर्शाता है। लेकिन सरकार की योजनाओं से अधिक महत्वपूर्ण वह मानसिकता है, जो घरों में बनती है और जहां बच्चे केवल परिणाम से नहीं, प्रक्रिया से भी मूल्यांकित होते हैं।आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सफलता की परिभाषा को पुन: परिभाषित करें। यदि कोई बच्चा संगीत में रुचि रखता है, चित्रकला में डूबता है, खेल में ऊर्जा पाता है या किसी वैज्ञानिक प्रयोग में तल्लीन होता है, तो वह भी उतना ही सफल है जितना कोई परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाने वाला। हमें शिक्षा के उद्देश्य को अंक-संग्रह से हटाकर जीवन-निर्माण की ओर मोडऩा होगा।बच्चों को केवल पाठ्यक्रम में नहीं, जीवन में भी पास होना है। वे तब पास होंगे जब हम उन्हें स्वयं होने की स्वतंत्रता देंगे। परीक्षा जीवन का हिस्सा हो सकती है, पर जीवन का पर्याय नहीं। इस बात को जितनी जल्दी हम समझें, उतना ही हमारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित होगा। इसलिए आज के इस निर्णायक मोड़ पर समाज, सरकार और सबसे अधिक परिवारों को यह सोचना होगा कि, क्या हम अपने बच्चों को बोझ दे रहे हैं या पंख? अगर उत्तर दूसरा नहीं है, तो दिशा बदलनी ही होगी। उन्हें उडऩे दीजिए,अपनी गति से, अपनी दिशा में, अपने आकाश की ओर…।।