सामाजिक न्याय की राह में बड़ा कदम

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संपादकीय { गहरी खोज }: केंद्र सरकार ने एक दूरदर्शी और साहसिक निर्णय लेते हुए जातिगत जनगणना कराने की दिशा में कदम बढ़ाया है।यह कदम भारतीय समाज में समावेशिता और न्यायपूर्ण विकास की नींव को और मजबूत करने वाला है।लंबे समय से चली आ रही इस मांग को स्वीकार कर सरकार ने यह संकेत दिया है कि वह सामाजिक यथार्थ को पहचानने और उसके अनुरूप योजनाएं गढऩे के लिए प्रतिबद्ध है।
उल्लेखनीय है कि स्वतंत्र भारत में जातिगत जनगणना आखिरी बार 1931 में अंग्रेजी शासन में हुई थी। 2011 में यूपीए सरकार ने जरूर प्रयास किया, लेकिन आंकड़ों की प्रस्तुति में व्यावहारिक जटिलताओं के कारण उसे अधूरा ही छोडऩा पड़ा।चूंकि जनगणना एक केंद्रीय विषय है, इसलिए राज्य सरकारें केवल सर्वेक्षण तक सीमित रहीं।
भाजपा ने इस मुद्दे पर संतुलित और तथ्यात्मक रुख अपनाया। बिहार में जातीय सर्वे का समर्थन कर उसने स्पष्ट किया कि वह सामाजिक न्याय के विषयों को नजरअंदाज नहीं करती।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इस विचार को समर्थन देकर सामाजिक संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित किया।वहीं कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों, विशेषकर राहुल गांधी, ने इसे अपने राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा बनाकर जोर-शोर से उठाया।
अब जबकि केंद्र सरकार स्वयं इस दिशा में सक्रिय हुई है, तो निश्चित ही यह एक ठोस और सकारात्मक संकेत है कि सरकार समाज के सभी वर्गों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की दिशा में प्रतिबद्ध है।
प्रश्न यह है कि क्या यह जातिगत जनगणना वास्तव में सामाजिक न्याय को गहराई देगी या फिर जातिवाद की राजनीति को नई ऊर्जा प्रदान करेगी ? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इन आंकड़ों का उपयोग किस दृष्टि से किया जाएगा,राजनीतिक लाभ के लिए या समावेशी विकास के लिए ! भारतीय राजनीति में जाति दरअसल, एक सामाजिक सच्चाई है।इसलिए यह ध्यान रखना होगा कि जब सामाजिक कल्याण की योजनाएं जातीय आधार पर बनती हैं, तब सटीक आंकड़े आवश्यक हो जाते हैं।अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गणना नियमित होती रही है, किंतु ओबीसी वर्ग का वास्तविक अनुपात आज भी स्पष्ट नहीं है। अब जब सभी जातियों की गणना होगी, तो यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि सभी धर्मों में व्याप्त जातिगत वर्गीकरण को भी आंकड़ों में स्थान मिले। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस पहल को सामाजिक समरसता और वंचित वर्गों के सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक बनाया जाए। यह आवश्यक है कि इसके आंकड़े किसी प्रकार के सामाजिक विभाजन का आधार न बनें। यदि यह केवल जातीय राजनीति को प्रोत्साहन देता है, तो यह मूल उद्देश्य से भटकाव होगा।बहरहाल,यह मामला उतना सरल नहीं है, जितना दिखता है, इसलिए मोदी सरकार के समक्ष अब सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि इस प्रक्रिया को पारदर्शी, उद्देश्य परक और समावेशी कैसे बनाया जाए ! यदि इस पहल से समाज के पिछड़े वर्गों को वास्तविक लाभ मिलता है और योजनाएं अधिक लक्षित बनती हैं, तो यह भारत की सामाजिक संरचना को अधिक मजबूत और न्यायसंगत बनाएगा। इसलिए यह कहना उचित है कि केंद्र सरकार का यह कदम सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल है। इसकी सफलता इस बात में निहित है कि इसका उपयोग देश को जोडऩे के लिए किया जाए, न कि विभाजित करने के लिए। जनगणना की उपयोगिता तभी है जब वह आंकड़ों को अवसर में बदल सके यानी विकास, भागीदारी और समानता के अवसर में।

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