कैसे शुरू हुई थी शंकराचार्य परंपरा? जानें क्या है इसका महत्व

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धर्म { गहरी खोज } : हिंदू धर्म में शंकराचार्य का पद सबसे सर्वोच्च माना जाता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार 788 ई में वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था। केरल के नंबूदरी ब्राह्मण कुल में हुआ जन्म आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ी गांव में हुआ था।इन्हें हिंदुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में एक के तौर पर जाना जाता है। भारत में आदि शंकराचार्य ने शंकराचार्य परंपरा की शुरुआत की थी।कहते हैं सनातन धर्म को जिंदा रखने और मजबूती देने का काम इसी से हुआ।

कब और कैसे हुई थी शंकराचार्य की शुरुआत?
आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए भारत के चार क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किए। चारों मठों में प्रमुख को शंकराचार्य कहा गया। कहते हैं कि अदि शंकराचार्यों के द्वारा इन चारों मठों की स्थापना ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में किए गए थे। इन मठों की स्थापना करके आदि शंकराचार्य ने उन पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। कहते है तब से ही इन मठों में शंकराचार्य की परंपरा चली आ रही है। इसके साथ ही हर मठ का अपना एक अलग विशेष महावाक्य भी होता है।

शंकराचार्यों के चार मठ
अदि शंकराचार्यों के द्वारा स्थापित किए गए चारों मठ आज भी शंकराचार्यों के नेतृत्व में सनातन परंपरा का प्रचार करते हैं। ये चारों मठ देश के चारों कोनों में स्थित हैं। जिसमें पहला उत्तर मठ ज्योतिर्मठ जो कि जोशीमठ में स्थित है। यह उत्तरांचल के बद्रीनाथ में स्थित है। दूसरा- पूर्वामण्य मठ या पूर्वी मठ, गोवर्धन मठ जो कि ओडिशा राज्य के जगन्नाथ पुरी में स्थित है। तीसरा- दक्षिणामण्य मठ या दक्षिणी मठ, शृंगेरी शारदा पीठ जो कि शृंगेरी में स्थित है।ये दक्षिण भारत में चिकमंगलूर में स्थित है।और चौथा- पश्चिमामण्य मठ या पश्चिमी मठ, द्वारिका पीठ यानी शारदा मठ जो कि गुजरात में द्वारकाधाम में स्थित है। इसके अलावा कांची मठ कांचीपुरम में स्थापित एक हिंदू मठ है। यह पांच पंचभूत स्थलों में एक है। यहां के मठाधीश्वर को शंकराचार्य कहते हैं। इसे आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया था।

कैसे बनते हैं शंकराचार्य?
शंकराचार्य बनने के लिए सन्यासी होना जरूरी होता है, जिसके लिए गृहस्थ जीवन का त्याग, मुंडन, अपना ही पिंडदान और रुद्राक्ष धारण करना बहुत आवश्यक होता है। इसके अलावा इसके अलावा तन मन से पवित्र, जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो, चारों वेद और छह वेदांगों का ज्ञाता होना चाहिए। इसके बाद शंकराचार्यों के प्रमुखों, आचार्य महामंडलेश्वरों, प्रतिष्ठित संतों की सभा की सहमति और काशी विद्वत परिषद की मुहर के बाद शंकराचार्य की पदवी मिलती है।

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